1 ﴿ अलिफ़, लाम, मीम।
﴾ 2 ﴿ ये पुस्तक है, जिसमें कोई संशय (संदेह) नहीं, उन्हें सीधी डगर दिखाने के लिए है, जो (अल्लाह से) डरते हैं।
﴾ 3 ﴿ जो ग़ैब (परोक्ष)[1] पर ईमान (विश्वास) रखते हैं तथा नमाज़ की स्थापना करते हैं और जो कुछ हमने उन्हें दिया है, उसमें से दान करते हैं।
1. इस्लाम की परिभाषा में, अल्लाह, उस के फ़रिश्तों, उस की पुस्तकों, उस के रसूलों तथा अन्तदिवस (प्रलय) और अच्छे-बुरे भाग्य पर ईमान (विश्वास) को ‘ईमान बिल ग़ैब’ कहा गया है। (इब्ने कसीर)
﴾ 4 ﴿ तथा जो आप (हे नबी!) पर उतारी गयी (पुस्तक क़ुर्आन) तथा आपसे पूर्व उतारी गयी (पुस्तकों)[1] पर ईमान रखते हैं तथा आख़िरत (परलोक)[2] पर भी विश्वास रखते हैं।
1. अर्थात तौरात, इंजील तथा अन्य आकाशीय पुस्तकों पर। 2.आख़िरत पर ईमान का अर्थ हैः प्रलय तथा उस के पश्चात् फिर जीवित किये जाने तथा कर्मों के ह़िसाब एवं स्वर्ग तथा नरक पर विश्वास करना।
﴾ 5 ﴿ वही अपने पालनहार की बताई सीधी डगर पर हैं तथा वही सफल होंगे।
﴾ 6 ﴿ वास्तव[1] में, जो काफ़िर (विश्वासहीन) हो गये, (हे नबी!) उन्हें आप सावधान करें या न करें, वे ईमान नहीं लायेंगे।
1. इस से अभिप्राय वह लोग हैं, जो सत्य को जानते हुए उसे अभिमान के कारण नकार देते हैं।
﴾ 7 ﴿ अल्लाह ने उनके दिलों तथा कानों पर मुहर लगा दी है और उनकी आंखों पर पर्दे पड़े हैं तथा उन्हीं के लिए घोर यातना है।
﴾ 8 ﴿ और[1] कुछ लोग कहते हैं कि हम अल्लाह तथा आख़िरत (परलोक) पर ईमान ले आये, जबकि वे ईमान नहीं रखते।
1. प्रथम आयतों में अल्लाह ने ईमान वालों की स्थिति की चर्चा करने के पश्चात् दो आयतों में काफ़िरों की दशा का वर्णन किया है। और अब उन मुनाफ़िक़ों (दुविधावादियों) की दशा बता रहा है, जो मुख से तो ईमान की बात कहते हैं, लेकिन दिल से अविश्वास रखते हैं।
﴾ 9 ﴿ वे अल्लाह तथा जो ईमान लाये, उन्हें धोखा देते हैं। जबकि वे स्वयं अपने-आप को धोखा देते हैं, परन्तु वे इसे समझते नहीं।
﴾ 10 ﴿ उनके दिलों में रोग (दुविधा) है, जिसे अल्लाह ने और अधिक कर दिया और उनके लिए झूठ बोलने के कारण दुखदायी यातना है।
﴾ 11 ﴿ और जब उनसे कहा जाता है कि धरती में उपद्रव न करो, तो कहते हैं कि हम तो केवल सुधार करने वाले हैं।
﴾ 12 ﴿ सावधान! वही लोग उपद्रवी हैं, परन्तु उन्हें इसका बोध नहीं।
﴾ 13 ﴿ और[1] जब उनसे कहा जाता है कि जैसे और लोग ईमान लाये, तुमभी ईमान लाओ, तो कहते हैं कि क्या मूर्खों के समान हमभी विश्वास कर लें? सावधान! वही मूर्ख हैं, परन्तु वे जानते नहीं।
1. यह दशा उन मुनाफ़िक़ों की है, जो अपने स्वार्थ के लिये मुसलमान हो गये, परन्तु दिल से इन्कार करते रहे।
﴾ 14 ﴿ तथा जब वे ईमान वालों से मिलते हैं, तो कहते हैं कि हम ईमान लाये और जब अकेले में अपने शैतानों (प्रमुखों) के साथ होते हैं, तो कहते हैं कि हम तुम्हारे साथ हैं। हम तो मात्र परिहास कर रहे हैं।
﴾ 15 ﴿ अल्लाह उनसे परिहास कर रहा है तथा उन्हें, उनके कुकर्मों में बहकने का अवसर दे रहा है।
﴾ 2 ﴿ ये पुस्तक है, जिसमें कोई संशय (संदेह) नहीं, उन्हें सीधी डगर दिखाने के लिए है, जो (अल्लाह से) डरते हैं।
﴾ 3 ﴿ जो ग़ैब (परोक्ष)[1] पर ईमान (विश्वास) रखते हैं तथा नमाज़ की स्थापना करते हैं और जो कुछ हमने उन्हें दिया है, उसमें से दान करते हैं।
1. इस्लाम की परिभाषा में, अल्लाह, उस के फ़रिश्तों, उस की पुस्तकों, उस के रसूलों तथा अन्तदिवस (प्रलय) और अच्छे-बुरे भाग्य पर ईमान (विश्वास) को ‘ईमान बिल ग़ैब’ कहा गया है। (इब्ने कसीर)
﴾ 4 ﴿ तथा जो आप (हे नबी!) पर उतारी गयी (पुस्तक क़ुर्आन) तथा आपसे पूर्व उतारी गयी (पुस्तकों)[1] पर ईमान रखते हैं तथा आख़िरत (परलोक)[2] पर भी विश्वास रखते हैं।
1. अर्थात तौरात, इंजील तथा अन्य आकाशीय पुस्तकों पर। 2.आख़िरत पर ईमान का अर्थ हैः प्रलय तथा उस के पश्चात् फिर जीवित किये जाने तथा कर्मों के ह़िसाब एवं स्वर्ग तथा नरक पर विश्वास करना।
﴾ 5 ﴿ वही अपने पालनहार की बताई सीधी डगर पर हैं तथा वही सफल होंगे।
﴾ 6 ﴿ वास्तव[1] में, जो काफ़िर (विश्वासहीन) हो गये, (हे नबी!) उन्हें आप सावधान करें या न करें, वे ईमान नहीं लायेंगे।
1. इस से अभिप्राय वह लोग हैं, जो सत्य को जानते हुए उसे अभिमान के कारण नकार देते हैं।
﴾ 7 ﴿ अल्लाह ने उनके दिलों तथा कानों पर मुहर लगा दी है और उनकी आंखों पर पर्दे पड़े हैं तथा उन्हीं के लिए घोर यातना है।
﴾ 8 ﴿ और[1] कुछ लोग कहते हैं कि हम अल्लाह तथा आख़िरत (परलोक) पर ईमान ले आये, जबकि वे ईमान नहीं रखते।
1. प्रथम आयतों में अल्लाह ने ईमान वालों की स्थिति की चर्चा करने के पश्चात् दो आयतों में काफ़िरों की दशा का वर्णन किया है। और अब उन मुनाफ़िक़ों (दुविधावादियों) की दशा बता रहा है, जो मुख से तो ईमान की बात कहते हैं, लेकिन दिल से अविश्वास रखते हैं।
﴾ 9 ﴿ वे अल्लाह तथा जो ईमान लाये, उन्हें धोखा देते हैं। जबकि वे स्वयं अपने-आप को धोखा देते हैं, परन्तु वे इसे समझते नहीं।
﴾ 10 ﴿ उनके दिलों में रोग (दुविधा) है, जिसे अल्लाह ने और अधिक कर दिया और उनके लिए झूठ बोलने के कारण दुखदायी यातना है।
﴾ 11 ﴿ और जब उनसे कहा जाता है कि धरती में उपद्रव न करो, तो कहते हैं कि हम तो केवल सुधार करने वाले हैं।
﴾ 12 ﴿ सावधान! वही लोग उपद्रवी हैं, परन्तु उन्हें इसका बोध नहीं।
﴾ 13 ﴿ और[1] जब उनसे कहा जाता है कि जैसे और लोग ईमान लाये, तुमभी ईमान लाओ, तो कहते हैं कि क्या मूर्खों के समान हमभी विश्वास कर लें? सावधान! वही मूर्ख हैं, परन्तु वे जानते नहीं।
1. यह दशा उन मुनाफ़िक़ों की है, जो अपने स्वार्थ के लिये मुसलमान हो गये, परन्तु दिल से इन्कार करते रहे।
﴾ 14 ﴿ तथा जब वे ईमान वालों से मिलते हैं, तो कहते हैं कि हम ईमान लाये और जब अकेले में अपने शैतानों (प्रमुखों) के साथ होते हैं, तो कहते हैं कि हम तुम्हारे साथ हैं। हम तो मात्र परिहास कर रहे हैं।
﴾ 15 ﴿ अल्लाह उनसे परिहास कर रहा है तथा उन्हें, उनके कुकर्मों में बहकने का अवसर दे रहा है।
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