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17 नवंबर 2018

अगर हम तुम्हारे साथ दीन हक़ की पैरवी करें

और हम यक़ीनन लगातार (अपने एहकाम भेजकर) उनकी नसीहत करते रहे ताकि वह लोग नसीहत हासिल करें (51)
जिन लोगों को हमने इससे पहले किताब अता की है वह उस (क़़ुरआन) पर इमान लाते हैं (52)
और जब उनके सामने ये पढ़ा जाता है तो बोल उठते हैं कि हम तो इस पर इमान ला चुके बेशक ये ठीक है (और) हमारे परवरदिगार की तरफ़ से है हम तो इसको पहले ही मानते थे (53)
यही वह लोग हैं जिन्हें (इनके आमाले ख़ैर की) दोहरी जज़ा दी जाएगी-चूँकि उन लोगों ने सब्र किया और बदी को नेकी से दफ़ा करते हैं और जो कुछ हमने उन्हें अता किया है उसमें से (हमारी राह में) ख़र्च करते हैं (54)
और जब किसी से कोई बुरी बात सुनी तो उससे किनारा कश रहे और साफ कह दिया कि हमारे वास्ते हमारी कारगुज़ारियाँ हैं और तुम्हारे वास्ते तुम्हारी कारस्तानियाँ (बस दूर ही से) तुम्हें सलाम है हम जाहिलो (की सोहबत) के ख़्वाहा नहीं (55)
(ऐ रसूल) बेशक तुम जिसे चाहो मंजि़ले मक़सूद तक नहीं पहुँचा सकते मगर हाँ जिसे खु़दा चाहे मंजि़ल मक़सूद तक पहुचाए और वही हिदायत याफ़ता लोगों से ख़ूब वाकि़फ़ है (56)
(ऐ रसूल) कुफ़्फ़ारे (मक्का) तुमसे कहते हैं कि अगर हम तुम्हारे साथ दीन हक़ की पैरवी करें तो हम अपने मुल्क से उचक लिए जाएँ (ये क्या बकते है) क्या हमने उन्हें हरम- ऐ- (मक्का) में जहाँ हर तरह का अमन है जगह नहीं दी वहाँ हर किस्म के फल रोज़ी के वास्ते हमारी बारगाह से खिंचे चले जाते हैं मगर बहुतेरे लोग नहीं जाते (57)
और हमने तो बहुतेरी बस्तियाँ बरबाद कर दी जो अपनी मइष्त (रोजी़) में बहुत इतराहट से (जि़न्दगी) बसर किया करती थीं-(तो देखो) ये उन ही के (उजड़े हुए) घर हैं जो उनके बाद फिर आबाद नहीं हुए मगर बहुत कम और (आखि़र) हम ही उनके (माल व असबाब के) वारिस हुए (58)
और तुम्हारा परवरदिगार जब तक उन गाँव के सदर मक़ाम पर अपना पैग़म्बर न भेज ले और वह उनके सामने हमारी आयतें न पढ़ दे (उस वक़्त तक) बस्तियों को बरबाद नहीं कर दिया करता-और हम तो बस्तियों को बरबाद करते ही नहीं जब तक वहाँ के लोग ज़ालिम न हों (59)
और तुम लोगों को जो कुछ अता हुआ है तो दुनिया की (ज़रा सी) जि़न्दगी का फ़ायदा और उसकी आराइष है और जो कुछ ख़ुदा के पास है वह उससे कही बेहतर और पाएदार है तो क्या तुम इतना भी नहीं समझते (60)

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