आपका-अख्तर खान

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15 दिसंबर 2016

यूँ ही बेवजह

यूँ ही बेवजह
अनजाने बनकर
रहे है कई रोज़ हम ,,
दो जिस्म
एक जान होने पर भी ,,
दिन रात ,,
तुम्हारी यादो का दर्द
तुम्हारी चाहत के आंसू
तुम्हारी नाराज़गी की
सिसकियाँ ,,
मेरे सिरहाने
बोलती रही है ,,,अख्तर

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