भाइयों कुछ हद तक आप सभी राष्ट्रवादी मित्र सही कह रहे हैं!आज प्रायः
प्रत्येक राजनैतिक पार्टी के अंदर स्वतंत्र विचार रखने वाले लोग किनारे कर
दिए जाते हैं,कूड़ेदान में फेंक दिए जाते हैं और कुछ हद तक तानाशाही भी चल
रही है! टिकट देते समय यदि पार्टियां स्थानीय लोगों का और कार्यकर्ताओं का
मन टटोल कर प्रार्थी चुनते तो निश्चित ही देश में एक स्वच्छ परम्परा की
शुरुवात होती!सबसे पहली शर्त तो प्रत्येक पार्टी की यह होती है की वह उनके
उच्च कमान का चमचा हो,फिर आर्थिक रूप से सदृढ़
हो,फिर बाहुबल संपन्न हो,और जीतनेवाली स्थिति में हो,तो उसे ही वरीयता दी
जाती है और उसके लिए पार्टी के सारे नियम कायदे ताक पर रख दिए जाते
हैं,सक्रीय सदस्यता तो दूर की बात साधारण सदस्य भी ना हो तो शुबह शिवसेना
में और शाम को रेल मंत्री भी बन सकते हैं,चुनाओं में हार गए तो क्या
हुवा,चनाव नहीं लड़े तो क्या हुवा वित्त मंत्री,मानव संसाधन मंत्रालय और
पेट्रोलियम एवं गैस मंत्रालय भी दिए जा सकते हैं,चारा चोरी के मामले में
अदालत से सजा पाने के बाद चुनाव लड़ने की पात्रता खोनेवाले लोग इस देश में
ऊँचे नेता बने हुवे हैं और सत्ता पर दखल हो सकती है!क्या करें देश का कानून
और संविधान की गलत व्याख्या द्वारा ये सभी राजनैतिक दल के नेता कुछ भी कर
सकते हैं,किन्तु दस रुपये चुरानेवाला चोर पकड़े जाने पर एक चोर वर्षों तक
जेल में सड़ता रहता है,यही गणतंत्र और यही स्वाधीनता ही तो मिली है इस देश
के लोगों को! इस मामले में बीजेपी भी कहीं से भी अछूती नहीं है
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