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19 अक्तूबर 2015

गऊ' राजनीति पशु नहीं, सियासत खतरनाक: गोविंदाचार्य


वाराणसी: कभी भाजपा के थिंक टैंक रहे गोविंदाचार्य ने गो-हत्या पर हो रही राजनीति पर क्या कहा, जानिये...
राष्ट्रवादी चिंतक एवं अखिल भारतीय गोरक्षा आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक के. एन. गोविंदाचार्य ने गोरक्षा के मुद्दे पर देश में छिड़ी बहस को दुःखदायी बताया है। गोविंदाचार्य जी ने बातचीत में कहा कि गोरक्षा के सवाल पर हो रही राजनीति देश के लिए खतरनाक है। उन्होंने कहा कि गऊ राजनीतिक पशु नहीं है जिसकी रक्षा के नाम पर राजनीति और सम्प्रदायवाद का खेल खेला जा रहा है। गाजीपुर के ढढ़नी कस्बे में आयोजित गोरक्षा सभा से लौटते हुए गोविंदाचार्य ने मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर संवाददाता से बात की।
गोविंदाचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा कि गोरक्षा का मसला आस्था के साथ सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था से जुड़ा है। गोरक्षा का सवाल राजनीति और सांप्रदायिक बहस के दायरे से परे है, लेकिन वर्तमान में इसको लेकर देश भर में चल रही बहस बेबुनियाद है। गोरक्षा के सवाल पर ताजा बहस के केंद्र में वोट की राजनीति है, जिसका लाभ हर कोई अपने-अपने तरीके से उठाना चाहता है।
गोरक्षा के मुद्दे का राजनीतिकरण और साम्प्रदायिकरण देश के लिए खतरनाक
गोविंदाचार्य ने कहा कि गोरक्षा के सवाल पर राजनीति करने वाले अंग्रेजों की नीति के पोशक हैं। पहली बार देश में गाय के सवाल राजनीति और संप्रदाय से जोड़ने का काम अंग्रेजों ने सन 1860 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद किया। उन्होंने कहा कि 1857 स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दू और मुसलमानों की एकता से अंग्रेज घबरा गए थे। लम्बे समय तक भारत पर राज करने लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ना अंग्रेजों के लिए जरूरी था। इसलिए उन्होंने अपने कत्लखानों में मुसलमानों को जबरदस्ती काम पर लगाया।
भारत में कत्लखानों की शुरुआत अंग्रेजों ने की
इतिहासकार धर्मपाल के हवाले से गोविंदाचार्य ने बताया कि देश में पहला कत्लखाना रॉबर्ट क्लाइव ने 1760 में बंगाल में शुरू किया। जिसमें प्रतिदिन लगभग तीस हजार, वर्ष में लगभग एक करोड़ गौवंश का क़त्ल किया जाता था। इस कत्लखाने की शुरुआत से पहले क्लाइव ने एक अध्ययन कराया था। जिसकी रिपोर्ट के मुताबिक भारतीयों को कृषि कार्य से अलग किये बिना अंग्रेजी कारखानों का माल बिकना संभव नहीं था। और खेती से भारतीय समाज को अलग करने के लिए गौवंश को खेती की व्यवस्था से हटाना जरूरी था। इसी नीति के तहत कत्लखाने खोले गए, जिसमें से निकले गोमांस का सेवन अंग्रेज करते थे।
मुगलकाल में कम होता था गोवंश का क़त्ल
गोकशी और मुसलमानों की संलिप्तता के सवाल पर गोविंदाचार्य ने कहा कि अंग्रजों से पहले भी गोवंश का क़त्ल हुआ लेकिन उसकी मात्रा बहुत कम थी। मुगलकाल में यदा-कदा ही गोवंश का क़त्ल होता था। वर्ष में अधिकतम 20 हजार गोवंश का क़त्ल होता था। ज्यादातर मुस्लिम शासकों ने गोकशी पर प्रतिबन्ध लगा रखा था।
गोरक्षा के लिए करनी होगी सार्थक पहल
गोविंदाचार्य ने कहा कि गोरक्षा के लिए सार्थक पहल की जरूरत है। एक तरफ सरकारी सहयोग चाहिए तो दूसरी ओर सामाजिक प्रयास। सरकार गोवंश की तस्करी, उसकी हत्या पर प्रतिबन्ध तो लगाये ही, साथ ही सामाजिक पहल करते हुए गोपालन पर जोर देना होगा। दैनिक जीवन और खेती में फिर से गो-उत्पादों के उपयोग से गाय का हमारे जीवन में महत्व बढ़ जायेगा।

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