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11 अक्तूबर 2015

प्रताप के सेनापती हकीम खां सूर ने किया था अकबर पर हमला, भागना पड़ा कोसो दूर

प्रताप के सेनापती हकीम खां सूर ने किया था अकबर पर हमला, भागना पड़ा कोसो दूर
महाराणा प्रताप के बहादुर सेनापति हकीम खां सूर के बिना हल्दीघाटी युद्ध का उल्लेख अधूरा है। 18 जून, 1576 की सुबह जब दोनों सेनाएं टकराईं तो प्रताप की ओर से अकबर की सेना को सबसे पहला जवाब हकीम खां सूर के नेतृत्व वाली टुकड़ी ने ही दिया।
महज 38 साल के इस युवा अफगानी पठान के नेतृत्व वाली सैन्य टुकड़ी ने अकबर के हरावल पर हमला करके पूरी मुगल सेना में आतंक की लहर दौड़ा दी। मुगल सेना की सबसे पहली टुकड़ी का मुखिया राजा लूणकरण आगे बढ़ा तो हकीम खां ने पहाड़ों से निकल कर अप्रत्याशित हमला किया।
मुगल सैनिक इस आक्रमण से घबराकर चार पांच कोस तक भयभीत भेड़ों के झुंड की तरह जान बचाकर भागे। यह सिर्फ किस्सागोई की बात नहीं है, अकबर की सेना के एक मुख्य सैनिक अलबदायूनी का लिखा तथ्य है, जो खुद हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप के खिलाफ लड़ने के लिए आया था।

वीरता ऐसी कि वीरगति प्राप्त करने के बाद भी उनके हाथ में रही तलवार
बहादुर हकीम खां ने हल्दीघाटी के युद्ध में ही वीरगति पाई। उनकी बहादुरी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वीरगति होने के बाद भी उनके हाथ में तलवार रही। उन्हें तलवार के साथ ही दफनाया। युद्ध शुरू हुआ तो सेना के सेनापति वे ही थे। इस सेना के दो हमलावर दस्ते तैयार किए गए। हकीम खां के कद का इसी से पता लगता है कि महाराणा ने एक हिस्से की कमान खुद संभाली और दूसरे का नेतृत्व हकीम खां को सौंपा।
राणा की एक पुकार पर एक हो गए थे हिन्दू-मुस्लिम
हल्दीघाटी के युद्ध के इतिहास के पन्नों पर एक दोहा बहुत चर्चित है : अजां सुणी, मस्जिद गया, झालर सुण मंदरांह। रणभेरी सुण राण री, मैं साथ गया समरांह। यानी अजान सुनकर मुस्लिम मस्जिदों को गए और घंटियों की आवाजें सुनकर हिंदू देवालयों में गए। लेकिन जैसे ही राणा ने युद्ध भेरी बजवाई तो हम सभी मंदिरों और मस्जिदों से संग्राम लड़ने के लिए मुगलों के खिलाफ एक हो गए।

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