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20 सितंबर 2015

दो लाख करोड़ का है खान कारोबार खनन कंपनियों में पार्टनर हैं बड़े नेता


खान के कारोबार में अफसरों और नेताओं के रिश्तेदारों की बराबर की हिस्सेदारी है। सरकार किसी की भी आए खानों को हासिल करने में किसी भी राजनीतिक दल के नेताओं के रिश्तेदार और नजदीकी लोग पीछे नहीं है। दिलचस्प है कि सियासत की पिच पर तो प्रतिद्वंद्वी नेता एक-दूसरे का चेहरा देखना तक पसंद नहीं करते लेकिन खानों के कारोबार में साथ-साथ हैं। खान कारोबारियों की फेहरिस्त में कांग्रेस के स्व. नवलकिशोर शर्मा और उनके बेटे ब्रजकिशोर शर्मा, परसराम मोरदिया, बाबूलाल नागर, अश्क अली टांक, जुबेर खान, उदयलाल आंजना और अशोक चांदना जैसे नाम प्रमुख हैं वहीं भाजपा में पीडब्ल्यूडी मंत्री यूनुस खान, ग्रामीण विकास मंत्री सुरेंद्र गोयल, खाद्य मंत्री हेमसिंह भडाना, पूर्व मंत्री कालूलाल, नाथूसिंह गुर्जर, सुरेंद्र सिंह राठौड़, सुमित्रा सिंह और हरिओम सिंह राठौड़ के नाम शामिल हैं।
नेताओं का कार्पोरेट कनेक्शन
इस पड़ताल में यह भी सामने आया है कि दोनों पार्टियों में महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके कई नेता खानों के कारोबार में हालांकि सार्वजनिक से भागीदार नहीं है लेकिन कई कंपनियों में उनकी पार्टनरशिप सामने आई है। सीमेंट, लौह अयस्क, जिप्सम और मेगनीज खनन से जुड़ी कंपनियों में इन नेताओं की पार्टनरशिप सामने आई है। इनमें से कुछ नेता मंत्री, सांसद के अलावा पार्टी प्रदेशाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद पर रह चुके हैं।
सालाना दो लाख करोड़ का कारोबार
नेता और अफसरों को खनन कारोबार इसलिए भी लुभा रहा है क्योंकि जितना बजट राजस्थान सरकार का एक साल का होता है अकेले इस कारोबार में उससे ज्यादा पैसों का लेनदेन होता है। अगर अवैध खनन को भी शामिल कर लिया जाए तो राज्य में हर साल दो लाख करोड़ रुपए इधर-उधर किए जा रहे हैं।
खनन बढ़ा तो... 55 साल में ये हुआ बदलाव
> 1960 में खनिज से सरकारी खजाने में 92.43 लाख की आमदनी होती थी जो अब 3088 करोड़ सालाना रुपए हो गई है।
> 1960 में खनिज उत्पादन 76.12 लाख टन था जो अब साढ़े 48 करोड़ टन सालाना हो गया है।
हर सरकार में रहा है खानों का विवाद
पिछले दो दशक में प्रदेश में खानों से जुड़े कई विवाद भी काफी चर्चा में रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के रिश्तेदारों को खान आवंटित किए जाने का मामला सड़क से लेकर सदन तक गूंजा वहीं पूर्व मंत्री रामलाल जाट और लक्ष्मीनारायण दवे के समय में भी खानों को लेकर विवाद हुए। विधानसभा का शायद ही कोई ऐसा सत्र रहा होगा जिसमें खानों को लेकर शोर-शराबा नहीं हुआ हो।

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