श्रीनगर। मुस्लिम कॉन्फ्रेंस (नेशनल कॉन्फ्रेंस) के संस्थापक
शेख अब्दुल्ला कश्मीर को भारत में विलय से पहले एक मुस्लिम देश बनाना चाहते
थे। शेख अब्दुल्ला के पूर्वज हिंदू (कश्मीरी पंडित) थे। शेख अब्दुल्ला ने
अपनी आत्मकथा को जो किताबी रूप दिया है उसमें उन्होंने इस बारे विस्तार से
बताया है।
आजाद कश्मीर का सपना देखने वाले शेख अब्दुल्ला ने स्वयं अपनी आत्मकथा
‘आतिशे चीनार’ में स्वीकार किया है कि कश्मीरी मुसलमानों के पूर्वज हिंदू
थे। उनके पूर्वज कश्मीरी पंडित थे और परदादा का नाम बालमुकुंद कौल था।
किताब में लिखा है कि श्रीनगर के निकट सूरह नामक बस्ती में शेख़़ मुहम्मद
अब्दुल्लाह का जन्म हुआ था। उनके पूर्वज मूलतः सप्रू गोत्र के कश्मीरी
ब्राह्मण थे। अफग़ानों के शासनकाल में उनके एक पूर्वज रघूराम ने एक सूफी के
हाथों इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। परिवार पश्मीने का व्यापार करता था और
अपने छोटे से निजी कारख़ाने में शाल और दुशाले तैयार कराके बाज़ार में
बेचता था। इनके पिता शेख़़ मुहम्मद इब्राहीम ने आरंभ में एक छोटे पैमाने पर
काम शुरू किया किन्तु मेहनत और लगन के कारण शीघ्र मझोले दर्जे के
कारख़ानेदार की हैसियत तक पहुँच गए। शेख़़ साहब के परिवार की स्थिति एक औसत
दर्जे के घराने की थी। इसके बावजूद भारत के प्रति शेख अब्दुल्ला का रवैया
भारत विरोधी कैसे हो गया यह बात समझ से परे है। शेख अब्दुल्ला के पुत्र डा.
फारुख अब्दुल्ला स्वयं कई बार कश्मीर के बाहर दिए गए साक्षात्कार और
भाषणों में अपने पूर्वजों के हिंदू होने का जिक्र कर चुके हैं। उन्हें कई
बार मंदिरों में पूजा करते हुए भी देखा गया है।
काशी के बाद कश्मीर
नीलमत पुराण में कश्मीर किस तरह बसा, उसका उल्लेख है। कश्यप मुनि को
इस भूमि का निर्माता माना जाता है। उनके पुत्र नील इस प्रदेश के पहले राजा
थे। चौदहवीं सदी तक बौद्ध और शैव मत यहां पर बढ़ते गए। काशी के बाद कश्मीर
को ज्ञान की नगरी के नाम से जाना जाता था। जब अरबों की सिंध पर विजय हुई
तो सिंध के राजा दाहिर के पुत्र राजकुमार जयसिंह ने कश्मीर में शरण ली थी।
राजकुमार के साथ सीरिया निवासी उसका मित्र हमीम भी था। कश्मीर की धरती पर
पांव रखने वाला पहला मुस्लिम यही था। अंतिम हिंदू शासिका कोटारानी के आत्म
बलिदान के बाद पर्शिया से आए मुस्लिम मत प्रचारक शाहमीर ने राजकाज संभाला
और यहीं से दारूल हरब को दारूल इस्लाम में तब्दील करने का सिलसिला चल पड़ा।
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