आपका-अख्तर खान

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30 नवंबर 2014

शिकवे ना हो

शिकवे ना हो किसी से कोई गिला ना हो,
जो दर्द ना हो तो फिर कोई मज़ा ना हो
मुझको सज़ाएं तेरी हो शौक से मुबारक
जो मेरी उल्फ़तों का कोई सिला ना हो,
धुंधले से हो गये हैं बीते हुए वो मंज़र,
सदियों से जैसे कोई गुल ही खिला ना हो,
चेहरों की भीड़ में रहा मैं ढूंढ़ता तुझे,
तुझको भी शायद मुझसा कोई मिला ना हो,
वो आख़िरी ख़त मैने अब तक नहीँ है खोला
डर है मुझको उसमें कहीँ अलविदा ना हो,

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