औरंगाबाद. नाम याकूब मंसूरी उर्फ वीरा। उम्र 53 वर्ष। स्थान
औरंगाबाद के गोह प्रखंड का देवहरा गांव। काम भिक्षाटन कर मंदिर एवं मस्जिद
के निर्माण के अलावा कई हिंदू, मुस्लिम समुदाय के गरीब परिवारों की बेटियों
के हाथ पीले करवाने में अहम भूमिका। यह किसी नाटक के किरदार का परिचय नहीं
है । यह परिचय है एक ऐसे इंसान का, जिसके साथ प्रकृति ने तो नाइंसाफी की,
परंतु उसने समाज को दिशा दिखाने का जो संकल्प लिया, उसमें नेत्रहीनता आड़े
नहीं आयी।
भृगुधाम से सटे पुनपुन नदी पर बसे देवहरा गांव के वीरा के सिर से पिता
का साया आठ वर्ष की अवस्था में ही उठ गया था। पांच वर्ष की उम्र में
प्रकृति ने इस असहाय के साथ मजाक किया। आंखें छीन ली। वह नेत्रहीन हो गया।
इस नेत्रहीन वीरा के पास कई अद्भुत गुण हैं। एक बार किसी से बात कर ले, तो
दुबारा उस व्यक्ति की आवाज सुनकर ही नाम तक बता देता है। 53 वर्षीय वीरा
अच्छा गीतकार भी है। गीत-संगीत सुना कर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देना उसकी
हुनर है। अपने आकर्षक लफ्जों से आकर्षित कर लोगों से भीख मांगा करता है।
भिक्षाटन कर बनवाया पुनपुन नदी घाट पर मंदिर
वीरा ने एक तरफ 1989 में पैतृक गांव देवहरा पुनपुन नदी घाट पर सूर्य
मंदिर का निर्माण करवाया, वहीं दूसरी तरफ 1993 में देवहरा गांव में मस्जिद
का निर्माण करवाया। पिछले साल तीन वर्षों से जमा किये गये पैसे से गोह
प्रखंड मुख्यालय में मां दुर्गे के पोखर घाट एवं सूर्य मंदिर का निर्माण
करवाया।
कई हिंदू व मुस्लिम लड़कियों की कराई शादी
अब तक वीरा ने करीब 20 हिन्दू और 15 मुस्लिम परिवारों के गरीब बेटियों
की शादी भिक्षाटन के पैसों से करवाई है। इसमें गया, औरंगाबाद, धनबाद,
बोकारो, अरवल और जहानाबाद आदि जिलों की लड़कियों के नाम शामिल हैं। वीरा का
कहना है कि गरीब की बेटियां उनकी बेटी के समान हैं, इसलिए उनकी और उनके
परिवार की भलाई करना सबसे बड़ा पुण्य का काम है।
आंखें बंद, हाथ-पैर पोलियोग्रस्त फिर भी अपनी कमाई से बनवाया मंदिर
धमतरी. लोग छोटी सी समस्या आने पर हिम्मत हार लेते हैं या मुंह
मोड़ लेते हैं, लेकिन घनश्याम सेन संघर्ष का जीता जागता मिसाल है, जिसने
बहु-विकलांगता को पीछे छोड़ गांव के लोगों को आस्था से ऐसे जोड़ा कि लोग
मंदिर पहुंचते ही उन्हें याद करते हैं।
जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर ग्राम अरौद (ली) निवासी घनश्याम सेन
(22) पिता लच्छूराम सेन की आंख में बचपन से रौशनी नहीं है। हाथ व पैर
पोलियोग्रस्त है। अपनी विकलांगता के चलते वह एक अक्षर भी पढ़ाई नहीं कर
पाया। फिर भी घनश्याम ने जिंदगी से हार नहीं माना। 15 वर्ष की उम्र में
टीवी, रेडियो, देवी मंदिरों के पास चलने वाले जसगीतों को सुनकर संगीत में
रिहर्सल शुरू किया और बाद में जसगीत में दक्ष हुआ। घनश्याम के कंठ से सुआ
नाचे सात बहनियां समेत कई जसगीत की धुन निकलती है, तो लोग दांतों तले उंगली
दबा लेते हैं।
सुरीली आवाज और सुमधुर गीतों से प्रेरित होकर गांव के छात्र-छात्राओं
ने मिलकर एक जसगीत पार्टी तैयार की और बहु-विकलांग घनश्याम की आवाज गांव से
राजधानी तक पहुंच गई। कई मंचों में वह अपने आवाज का जादू बिखेर चुका है।
हुनर से उसने हजारों रुपए कमाए। घर से मंदिर व मंदिर से घर जाने के लिए वह
किसी पर आश्रित नहीं है। गांव के मोड़ व रास्ते का नक्शा उसके दिमाग में
बैठ गया है। मंदिर का ताला आम लोगों की तरह पलभर में खोल देता है। दिनचर्या
की सारी प्रक्रिया आसानी से कर लेता है।
राजधानी के गायक को पीछे छोड़ा
ग्रामीण रूपराम साहू, दिलीप सेन ने बताया कि प्रदेश के सबसे प्रसिद्ध
जसगीत गायक के साथ उसकी दो बार स्पर्धा हुई। जिला स्तर पर आयोजित स्पर्धा
में उसने प्रसिद्ध गायक को पीछे छोड़कर प्रथम स्थान प्राप्त किया।
गांव में बनवाया मंदिर
घनश्याम बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति का है। उन्होंने अपने हुनर की
कमाई से गांव में मां दुर्गा व भगवान राम का मंदिर बनवाया है। गांव में
भक्ति भावना जागृत हो और भगवान के प्रति लोगों की आस्था बनी रहे, इसी
उद्देश्य से उसने मंदिर निर्माण कराया। मां दुर्गा और भगवान राम के मंदिर
की पूजा-अर्चना और श्रद्धा-भक्ति में उसकी दिनचर्या कटती है।
कट रही है जिंदगी
घनश्याम गरीब परिवार से है। वह माता-पिता व बड़े भाई की कमाई पर
आश्रित है। बहु-विकलांग होने के कारण उसे शासन से पेंशन, गरीबी रेखा कार्ड,
स्मार्टकार्ड सुविधा का लाभ मिल रहा है। बड़े भाई दिलीप सेन ने बताया कि
उसके लिए व्यवसाय खोलने हेतु सरकार से लोन के लिए काफी प्रयास किया गया,
लेकिन शासन से उन्हें लोन नहीं मिल पाया।
ये हौंसले की वो मिसाले हैं जिन्हें देखकर शायद हाथ पैर औऱ आंखों वालो को शर्म आए.....। मित्र एक टीवी कार्यक्रम बनाने की तैयारी कर रहा हूं...काम चल रहा है..काम पूरा होते औऱ स्पांसर का जुगाड़ होते ही कार्य शुरु कर दूंगा...आपकी पोस्ट को सहेज लिया है....
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