एक के बाद एक जघन्य, आतंकी, निर्दोष बच्चों-महिलाओं के हत्यारे दया पाते जा रहे हैं। इससे एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है। धारा 302 का अर्थ ही हो गया है - हत्या करने के बाद माफ़ी। एक बार ध्यान से देखना आवश्यक है कि इन 23 वर्षों में राजीव गांधी के हत्यारे कैसे सबको धोखा देते रहे :
इस भीषण हत्याकांड के पीछे भारी षड्यंत्र था। श्रीलंका के लिट्टे आतंकी हमलावरों का रहस्यमय प्रवेश और मौजूदगी थी। विशेष जांच दस्ते ने एक वर्ष में ही चार्जशीट टाडा कोर्ट में दाखिल कर दी। पूरे 6 वर्ष लगा दिए कोर्ट ने। 28 जनवरी, 2008 को 26 हत्यारों को फांसी की सज़ा सुनाई गई। तभी से हत्यारों के लिए आंसू बहाए जा रहे हैं।
तभी दे दी जानी थी फांसी। अगले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने इन तीनों हत्यारों और चौथी नलिनी की भी फांसी बरकरार रखी। तीन की फांसी माफ कर दी। बाकी 11 को छोड़ दिया! ऐसे कैसे अफसर लगाए जो कि 11 हत्यारों के अपराध को सिद्ध ही नहीं कर पाए? कैसे अभियोजन की कार्रवाई की? कैसे वकील खड़े किए? इतने सारे हिंसक हमलावर यूं छूट जाएं - कैसे हो सकता है? किन्तु हुआ।
फिर राज्यपाल के पास दया की अर्जी भेजी इन चारों ने। हमेशा राज्यपाल, राष्ट्रपति की तरह दया दिखलाने की होड़ में रहते हैं। किन्तु उन्होंने 10 दिन में माफी खारिज कर दी। फिर 2 माह बाद ही, मद्रास हाईकोर्ट में चारों हत्यारे राज्यपाल को ग़लत ठहराने में सफल हो गए। खारिज हो गया राज्यपाल का आदेश! हाईकोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को राज्य मंत्रिमंडल से राय लेकर ही फैसला करना चाहिए। अप्रैल 2000 में लिट्टे समर्थक मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि ने नलिनी की फांसी माफ़ करने का फैसला लिया। मुरुगन की पत्नी नलिनी का पूरा परिवार संदेह के घेरे में था। फिर बाकी तीनों की दया- केंद्र सरकार और राष्ट्रपति के लिए छोड़ दी गई। राष्ट्रपति भवन ने 11 वर्ष लगा दिए। बस, यही माफी का कारण बना।
लिट्टे विरोधी होने के बावजूद जयललिता ने केंद्र को राजनीतिक चाल में फंसा दिया है। 72 घंटे में रोको - नहीं तो मैं रिहा करती हूं। राहुल गांधी ने दुख जाहिर किया है। इन 10 वर्षों में सरकार उन्हीं की पार्टी की थी। राष्ट्रपति उन्हीं की पार्टी के थे।
प्रश्न राजीव गांधी के हत्यारों के छूटने या उस पर राजनीति का ही नहीं है। प्रश्न तो यह है कि देश में हत्यारों के प्रति दया दिखाने की होड़ मची ही क्यों है? हत्या के शिकार परिवारों के प्रति हम निर्दयी क्यों हो गए हैं? दरिंदों के मानवाधिकारों की चिंता क्यों? यदि किसी को सज़ा देनी ही नहीं है तो धारा 302 को मिटा क्यों नहीं देते? यही रहा तो लहूलुहान निर्दोष न्याय से गुहार करेंगे : मुझे जीने दो!
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