रिपोर्ट देने में एक साल से ज्यादा समय लगा दिया मंत्रालय ने: करीब पांच भागों में तैयार 340 पेजों से ज्यादा पन्नों वाली रिपोर्ट को साझा करने में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और एम्स प्रशासन ने एक साल से भी ज्यादा का वक्त ले लिया। दिसंबर 2012 में ही एम्स की आंतरिक ऑडिट रिपोर्ट तैयार हो चुकी थी। लेकिन जनवरी 2013 से फरवरी 2014 तक लगभग दस से ज्यादा आरटीआई आवेदन और अपील करने के बाद ही यह रिपोर्ट हाथ लग पाई।
बेवजह वसूले मरीजों से 53.68 करोड़ रुपए
रिपोर्ट में कहा गया है कि मरीजों से गैरजरूरी व ज्यादा पैसा वसूला जा रहा है। साल 2006-2011 के बीच एम्स के चार विभाग (एंजियोग्राफी, गामा नाइफ, न्यूरो सर्जरी और सीटी स्कैन) ने मरीजों से लगभग 53.68 करोड़ रुपए जमा किए। विभागों द्वारा इतनी मोटी रकम लेने से साफ है कि मरीजों से बहुत ज्यादा पैसा ऐंठा गया है। आशंका जताई गई है कि निजी सेंटरों की तरह ही इन विभागों में मरीजों से पैकेज की तरह फीस ली गई। मरीजों को वह फीस भी वापस नहीं की गई, जिसकी जरूरत नहीं थी। इससे भी शर्मनाक यह कि समाज कल्याण के उद्देश्य से परे एम्स प्रशासन ने इतनी बड़ी रकम पर ब्याज कमाने के लिए बैंक में फिक्स डिपॉजिट करवा दिया है।
104 करोड़ रुपए शोध के नाम पर खर्चे
किसी सरकारी अस्पताल में इतनी दरियादिली कहीं नहीं दिख सकती जितनी एम्स ने दिखाई है। एम्स में 104 करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम विभिन्न संस्थाओं और विभागों को शोध के नाम पर बांटी गई। और उन शोधों की कोई खोज-खबर तक नहीं है। खुद एम्स प्रशासन ने इसकी सुध लेने की जरूरत नहीं समझी। विभिन्न विभागों के बहीखातों से पता चला है कि काम में देरी, निजी कंपनियों द्वारा नियमों की अनदेखी के मामलों में करीब नौ करोड़ रुपयों से ज्यादा वसूल ही नहीं किए। इन्हे किस आधार पर जुर्माने से बचाया गया इसका जवाब एम्स प्रशासन ने नहीं दिया।
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