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18 फ़रवरी 2014

सजा-ए-मौत का सच: 1455 को मिली, केवल एक पर तामील



नई दिल्ली. राजीव गांधी के तीन हत्यारों की फांसी की सज़ा को उम्रकैद में तब्दील किए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से देश में फांसी की सज़ा को लेकर बहस तेज होने के आसार हैं। फैसला आने के बाद पूर्व आईपीएस किरण बेदी ने कहा भी कि जिन लोगों ने इतनी लंबी सजा झेल ली है, उन्‍हें फांसी दिया जाना अमानवीय है। उनका कहना है कि सबसे बड़े लोकतंत्र में मौत की सजा पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। फांसी की सज़ा को लेकर बहस को पंजाब पुलिस के पूर्व डीजी केपीएस गिल ने आगे बढ़ाया है। गिल ने 1993 में हुए बम विस्फोट के दोषी देविंदर पाल सिंह भुल्लर की फांसी की सज़ा पर टिप्पणी करते हुए कहा, 'भुल्लर की पत्नी का अपने पति की मानसिक सेहत ठीक न होने को बुनियाद बनाकर फांसी की सज़ा को उम्र कैद की सज़ा में तब्दील करने की मांग कर रही हैं। क्या सभी आतंकवादियों को मानसिक समस्या नहीं होती है?'  वर्ष 2001-11 के बीच 10 सालों में भारतीय अदालतों में 1,455 लोगों को मौत की सज़ा सुनाई गई। औसतन हर वर्ष 132.27 लोगों को यह सज़ा मिली। लेकिन इनमें से ज्यादातर सजाएं बाद में चलकर उम्रकैद में तब्दील कर दी गईं। इन 10 वर्षों में आतंकवाद से जुड़े मामलों को छोड़ दिया जाए तो सिर्फ धनंजय चटर्जी को फांसी की सज़ा दी गई। धनंजय को अगस्त, 2004 में 14 साल की लड़की के साथ बलात्कार करने के मामले में दोषी पाए जाने पर फांसी दी गई थी।  
 
राजनीति की वजह से लंबित रही दया याचिका? 
 
देश के पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस के 'प्रथम परिवार' माने जाने वाले नेहरू-गांधी परिवार के नेता राजीव गांधी की 1991 में आत्मघाती हमले में जान जाना देश आज भी भूल नहीं पाया है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि राजीव गांधी के हत्यारों को मौत की सज़ा से बच जाने के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या इसके लिए सियासत जिम्मेदार है या इसके लिए लापरवाही दोषी है? देश में पिछले 9-10 सालों से उसी कांग्रेस पार्टी की सरकार है, जिसके नेता राजीव गांधी थे। कांग्रेस संगठन में आज के दौर में सबसे ताकवतर नेता राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल गांधी हैं। ऐसे में राजीव गांधी के हत्यारों की दया याचिका इतने सालों से लंबित कैसे रह गई? यह सवाल बना हुआ है। क्या इसके पीछे तमिल राजनीति वजह थी या कोई और सियासी कारण? चूंकि, यह तर्क भी कई लोगों के गले नहीं उतरता कि सोनिया गांधी ने राजीव के हत्यारों को माफ कर दिया है, इसलिए उनकी मौत की सज़ा का उम्रकैद में तब्दील होना अचरज भरा नहीं है। क्योंकि अगर यही तर्क है तो देश में लंबे समय से लंबित पड़ी अन्य दया याचिका डालने वाले कैदियों की भी जान बख्शी जानी चाहिए। 
 
 
पिछले महीने भी 15 दोषियों की सजा उम्रकैद में बदली 
 
पिछले महीने भी सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में हत्या के 15 दोषियों की मौत की सज़ा देने में देर होने को वजह मानते हुए उनकी सज़ा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया था। आतंकवाद से जुड़े मामलों को छोड़ दिया जाए तो भारत में फांसी की सज़ा लगभग खत्म होने की कगार पर है। कम से कम आकंड़े तो यही बताते हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ता लंबे समय से फांसी की सज़ा को खत्म किए जाने की मांग कर रहे हैं। हालांकि, कानूनी तौर पर भारत में अब भी फांसी की सज़ा बरकरार है, लेकिन बहुत कम मामलों में यह सज़ा सुनाई जा रही है, और उससे भी कहीं कम मामलों में इस पर अंतिम तौर पर अमल किया जा रहा है। 
 
किन-किन अपराधों में हो सकती है फांसी की सज़ा
 
हत्या, गैंग के साथ डकैती और हत्या, बच्चों या मानसिक रूप से अस्थिर लोगों को आत्महत्या के लिए उकसाना, सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ना और सशस्त्र सेना के किसी सदस्य की तरफ से बगावत को उकसाने जैसे मामलों में फांसी की सज़ा का प्रावधान भारतीय कानून में है। 
 
क्या है कानून? 
 
क्रिमिनल प्रोसीजर कोड (सीपीसी) में 1973 में जुड़ी धारा 354 (3) ने जज के लिए यह जरूरी बना दिया कि वह फांसी की सज़ा सुनाते समय इसके लिए विशेष कारण बताए। 1980 में बचन सिंह केस में सुनवाई के दौरान मौत की सज़ा के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर' (जघन्यतम या दुर्लभतम) सिद्धांत को सही ठहराया। इसका मतलब था कि 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर' मामलों में ही मौत की सज़ा सुनाई जाएगी। तब से लेकर आज तक गंभीर से गंभीर अपराध के एवज में उम्रकैद सामान्य रूप से दी जाने वाली सज़ा बन गई और फांसी की सज़ा गिने चुने मामलो में दी जाने लगी। 
 
कहां है पेंच?
 
'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' मामले क्या हैं, इन्हें लेकर स्पष्ट प्रावधान न होने और जज के विवेक पर काफी कुछ निर्भर रहने की वजह से देश की कई अदालतें सजा-ए-मौत की सज़ा सुना देती हैं, लेकिन ऐसी सज़ा कभी हकीकत नहीं बन पाती।

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