जिस मुजफ्फरनगर की आग की लपटें मेरठ के गांवों तक और शामली तक पहुंच गई है
अंतराष्ट्रीय स्तर पर यह शहर उर्दू के मशहूर शायर, अशोक साहिल, खालिद
जाहिद मुजफ्फरनगरी, और मरहूम मुजफ्फर रज्मी कैरानवी के नाम से जाना जाता
है। अपनी शायरी के द्वारा पुल बनाने के लिये जाना जाता है काबा और काशी को
नजदीक लाने वाले शायर अशोक साहिल के इस शहर में लोग आपस में लड़ रहे हैं ये
कोई बाहर से आये लोग नहीं हैं ये वही लोग हैं जिनके पुरखों ने कभी
अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये थे जिन्होंने गुलाम भारत की आजादी की
लड़ाईयां कांधे से कांधा मिलाकर लड़ीं थीं। मगर आज उनके वंशज सियासी
मदारियों के चक्कर में आकर एक दूसरे की जान के दुश्मन बने हुऐ हैं। कहने को
चारों ओर से अम्न और शान्ती की दुआऐं की जा रहीं हैं मगर इनका कुछ सरफिरों
पर कोई असर देखने को नहीं मिल रहा है। सियासी मदारी बारूद के ढेर को
चिंगारी दिखाखर पीछे से हवा कर रहे हैं ताकी ये शौले भड़कते ही रहे हैं
आपसी भाईचारे की दीवारें रोज टूटती रहें, और उनका सियासी कारोबार चलता रहे
किसी का हिंदू के नाम पर तो किसी का मुस्लिम के नाम पर। जब इस बारे में
मश्हूर शायर हाफिज खालिद जाहिद मुजफ्फरनगरी से बात की गई तो उन्होंने कहा
कि “ ये कैसा दौर मेरे शहर को देखने को मिला है ये वही सानिहा है जिससे
लम्हों की खता सदियों तक भी माफ नहीं होती, ये वही खताऐं हैं जिनसे सदियों
पुराने आपसी भाई चारे, आपसी सदभाव में दरारें आ जाती हैं, सुना है लोग
नाखून बढ़ने पर नाखून काटते हैं उंगलियों को नहीं काटते, लेकिन ये कैसे लोग
हैं जो नाखूनों के साथ – साथ उंगलियों को भी तराश रहे हैं। ” इतना कहते ही
उनका गला रुंध जाता है थोड़ी देर रुकने के बाद वे आगे कहते हैं कि जब किसी
घर में आपस में भाईयों में झगड़ा होता है तो यकीनन वो घर फिर काटने को
दौड़ता है, ऐसे माहौल में उसमें जी नहीं लगता बस यही दुआ हर दम रहती है कि
काश इस घर की खुशी लौट आयें वो पुराना भाईचार फिर से कांयम हो जाये।
दंगाईयों से मुखातिब होकर वे कहते हैं -
तेजी से तबाही की तरफ दौड़ने वालो, तलवार से दुश्मन की जबीं खम नहीं होती
अंजाम कभी जंग का अच्छा नहीं होता, बारूद कभी जख्म का मरहम नहीं होती।
वास्तविकता तो यही है बारूद कभी किसी के जख्म का मरहम नहीं बने, लेकिन फिर
भी उस बारूद का इलाज तो मुमकिन है जो बंदूक के माध्यम से इंसानी जिस्म को
तार तार कर देता है, मगर उस बारूद का क्या किया जाये जो सियासी लोगों ने
सांप्रदायिकता के रूप में युवाओं की रगों में भर दिया है ? और अभी तक ये
खेल जारी है जिसकी बदौलत कभी मुजफ्फरनगर से उठने वाली चिंगारी शौला बन जाती
है तो कभी सीतापुर, मुरादाबाद, मेरठ, अलीगढ़, बनारस, लखनऊ, इत्यादी शहर
जलने सुलगने लगते हैं। अशोक साहिल भी इसी शहर के हैं, फिलहाल वो शहर से
बाहर थे मैंने जब उनसे फोन पर बात की तो उन्होंने रुंधे हुऐ गले के साथ
कहा, भाई मेरे शहर का मौसम ऐसा कभी नहीं रहा है, इस बार ये खिजा अपने पीछे
तबाहियों के न जाने कितने निशानात छोड़ जायेगी, हिंदू मुस्लिम की बात करने
पर वे कहते हैं कि उन्होंने तो बस इंसान ही रहने की कसम खाई है उन्हें
हिंदू मुसलमान कौन समझेगा। ये वही अशोक साहिल थे जो अक्सर अंतराष्ट्रीय
स्तर पर होने वालो मुशायरों में कहा करते हैं, कि..
काबा और काशी को कुछ नजदीक लाने के लिये
मैं गजल कहता हूं सिर्फ पुल बनाने के लिये।
हमेशा शायरी में पुल बनाने वाले शायर के शहर का जलना, और उस जलते शहर से
मासूमों की चीखों का आना वैसा ही है जैसे किसी डूबने वाले की चीखें आतीं
हैं, और वे कानों में जम जाती हैं कठोर से कठोर इंसान का भी दिल उस वक्त
पिघल जाता है। यहां से करीब तीस किलो मीटर की दूरी पर आलमी शौहरत याफ्ता
शायर डॉ. नवाज देवबंदी रहते हैं, वे दो जुमलों में अपनी बात खत्म कर देते
हैं बहुत अफसोसनाक है कि अब शहर की आग गांव तक पहुंच रही है, अभी तक गांव
इस सांप्रदायिकता की आग से महफूज थे लेकिन इस बार सियासत ने कुछ ऐसा खेल
खेला है कि जिससे गांव में चौपालों पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाते लोगों के
जहन भी चाक हो गये हैं। पंजाब के जालांधर से कुछ ही दूरी पर बसे मुजफ्फरनगर
से उठने वाली लपटों की आंच जालांधर के रहने वाले खुशबीर सिंह शाद को भी
गर्मी का तपिश का एहसास दिला रही हैं वे कहते हैं कि मुजफ्फरनगर की घटना ने
उनको सदमा पहुंचाया है, जिस एकता को चौधरी चरण सिंह ने सींचकर यहां तक
लाये थे उस एकता को सियासी लोगों ने एक पल में ढ़ेर कर दिया। वे कहते हैं
कि इस बार चली इस पागल हवा ने जाने कितने चरागों को बुझा दिया है, और इस
शेर के गुनगुनाते हुऐ अपनी बात खत्म करते हैं कि
देव कामत पेड़ सब लरजे रहे सहमे रहे
जंगलों में चीखती फिरती रही पागल हवा।
सवाल ये है कि आखिर हमेशा एक साथ रहने वाले, एक दूसरे के दुख सुख में
बराबर साथ निभाने वाले एक दूसरे की जां के दुश्मन क्यों बन जाते हैं ? वो
क्यों भूल जाते हैं कि ‘रामलीला’ में राम का किरदार भी ‘मुस्लिम’ लड़के ही
निभाते हैं, रावण के पुतले भी मुस्लिमों के यहां बनते हैं, और मुस्लिम
क्यों भूल जाते हैं कि ईद पर खरीदारी तो सेठ जी के यहां से ही होती है। ये
सच है कि सियासी लोगों ने जख्म दिये हैं मगर अभी हालात ऐसे भी नहीं हैं कि
उनके इलाज किसी के पास न हो, जब मुजफ्फरनगर से वापस दिल्ली आ रहा था तो वे
रास्ते भी सुनसान पड़े थे जहां जश्न का माहौल रहता था, फिर अपने सवाल किया
कि सांप्रदायिकता कि सियासत और मज्हबी आताताईयों ने इस जन्नत कहे जाने वाले
मुल्क को क्या बना दिया ? सोचना हम सबको है आखिर जिम्मेदारी सबकी है ? एक
दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने से कोई फायदा नहीं है फायदा तो तब है जब
गौरव के जख्म पर सुहेल पट्टी बांधे। आखिर हम आपस में हैं तो एक ही देश के
नागरिक एक ही आंगन बच्चे एक ही क्यारी के फूल महक अलग है तो क्या हुआ मगर
खूबसूरती तो सबके साथ रहकर ही आती है।
तेजी से तबाही की तरफ दौड़ने वालो, तलवार से दुश्मन की जबीं खम नहीं होती
अंजाम कभी जंग का अच्छा नहीं होता, बारूद कभी जख्म का मरहम नहीं होती।
वास्तविकता तो यही है बारूद कभी किसी के जख्म का मरहम नहीं बने, लेकिन फिर भी उस बारूद का इलाज तो मुमकिन है जो बंदूक के माध्यम से इंसानी जिस्म को तार तार कर देता है, मगर उस बारूद का क्या किया जाये जो सियासी लोगों ने सांप्रदायिकता के रूप में युवाओं की रगों में भर दिया है ? और अभी तक ये खेल जारी है जिसकी बदौलत कभी मुजफ्फरनगर से उठने वाली चिंगारी शौला बन जाती है तो कभी सीतापुर, मुरादाबाद, मेरठ, अलीगढ़, बनारस, लखनऊ, इत्यादी शहर जलने सुलगने लगते हैं। अशोक साहिल भी इसी शहर के हैं, फिलहाल वो शहर से बाहर थे मैंने जब उनसे फोन पर बात की तो उन्होंने रुंधे हुऐ गले के साथ कहा, भाई मेरे शहर का मौसम ऐसा कभी नहीं रहा है, इस बार ये खिजा अपने पीछे तबाहियों के न जाने कितने निशानात छोड़ जायेगी, हिंदू मुस्लिम की बात करने पर वे कहते हैं कि उन्होंने तो बस इंसान ही रहने की कसम खाई है उन्हें हिंदू मुसलमान कौन समझेगा। ये वही अशोक साहिल थे जो अक्सर अंतराष्ट्रीय स्तर पर होने वालो मुशायरों में कहा करते हैं, कि..
काबा और काशी को कुछ नजदीक लाने के लिये
मैं गजल कहता हूं सिर्फ पुल बनाने के लिये।
हमेशा शायरी में पुल बनाने वाले शायर के शहर का जलना, और उस जलते शहर से मासूमों की चीखों का आना वैसा ही है जैसे किसी डूबने वाले की चीखें आतीं हैं, और वे कानों में जम जाती हैं कठोर से कठोर इंसान का भी दिल उस वक्त पिघल जाता है। यहां से करीब तीस किलो मीटर की दूरी पर आलमी शौहरत याफ्ता शायर डॉ. नवाज देवबंदी रहते हैं, वे दो जुमलों में अपनी बात खत्म कर देते हैं बहुत अफसोसनाक है कि अब शहर की आग गांव तक पहुंच रही है, अभी तक गांव इस सांप्रदायिकता की आग से महफूज थे लेकिन इस बार सियासत ने कुछ ऐसा खेल खेला है कि जिससे गांव में चौपालों पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाते लोगों के जहन भी चाक हो गये हैं। पंजाब के जालांधर से कुछ ही दूरी पर बसे मुजफ्फरनगर से उठने वाली लपटों की आंच जालांधर के रहने वाले खुशबीर सिंह शाद को भी गर्मी का तपिश का एहसास दिला रही हैं वे कहते हैं कि मुजफ्फरनगर की घटना ने उनको सदमा पहुंचाया है, जिस एकता को चौधरी चरण सिंह ने सींचकर यहां तक लाये थे उस एकता को सियासी लोगों ने एक पल में ढ़ेर कर दिया। वे कहते हैं कि इस बार चली इस पागल हवा ने जाने कितने चरागों को बुझा दिया है, और इस शेर के गुनगुनाते हुऐ अपनी बात खत्म करते हैं कि
देव कामत पेड़ सब लरजे रहे सहमे रहे
जंगलों में चीखती फिरती रही पागल हवा।
सवाल ये है कि आखिर हमेशा एक साथ रहने वाले, एक दूसरे के दुख सुख में बराबर साथ निभाने वाले एक दूसरे की जां के दुश्मन क्यों बन जाते हैं ? वो क्यों भूल जाते हैं कि ‘रामलीला’ में राम का किरदार भी ‘मुस्लिम’ लड़के ही निभाते हैं, रावण के पुतले भी मुस्लिमों के यहां बनते हैं, और मुस्लिम क्यों भूल जाते हैं कि ईद पर खरीदारी तो सेठ जी के यहां से ही होती है। ये सच है कि सियासी लोगों ने जख्म दिये हैं मगर अभी हालात ऐसे भी नहीं हैं कि उनके इलाज किसी के पास न हो, जब मुजफ्फरनगर से वापस दिल्ली आ रहा था तो वे रास्ते भी सुनसान पड़े थे जहां जश्न का माहौल रहता था, फिर अपने सवाल किया कि सांप्रदायिकता कि सियासत और मज्हबी आताताईयों ने इस जन्नत कहे जाने वाले मुल्क को क्या बना दिया ? सोचना हम सबको है आखिर जिम्मेदारी सबकी है ? एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने से कोई फायदा नहीं है फायदा तो तब है जब गौरव के जख्म पर सुहेल पट्टी बांधे। आखिर हम आपस में हैं तो एक ही देश के नागरिक एक ही आंगन बच्चे एक ही क्यारी के फूल महक अलग है तो क्या हुआ मगर खूबसूरती तो सबके साथ रहकर ही आती है।
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