आपका-अख्तर खान

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08 सितंबर 2013

ये आंसू, ये दर्द, ये टीस, ये गुस्सा….! ये एहसास,

प्रिय अखिलेश जी……!!

ये आंसू,
ये दर्द,
ये टीस,
ये गुस्सा….!
ये एहसास,

शायद एक साल पुराना है........ !

मेरे अपने शहर में 45 घर जले थे.......!

मैं सुबह के 5:30 बजे आपके पास बैठा हुआ था..!
आपको दिल्ली की फ़्लाइट पकड़नी थी... !

उस वक़्त मैंने आपसे ये बात कही थी....!

हमें लैपटॉप नहीं चाहिए,
हमें बेरोज़गारी भत्ता नहीं चाहिए,
हमें विकास भी नहीं चाहिए,
हमें नौकरी भी नहीं चाहिए

हमें बड़े-बड़े और लोक लुभावन वादे भी नहीं चाहिए.....!

अगर कुछ दे सकने की हैसियत में हैं आप .
अगर सच में कुछ देना चाहते हैं आप... !

तो बस हमारी नस्लों को,
हमारे समाज को ,

महफ़ूज़ होने का एहसास दे दीजिए....!

ये कहते हुए रो पड़ा था मैं.....

उन जले हुए घरों में मेरा घर शामिल नहीं था....!

लेकिन क्या करूं...
नहीं देखे जाते हमसे ये जले हुए घर...!
नहीं देखे जाते हमसे !

आज फिर आंसुओं के साथ उदास बैठा हूं,
जल रहा है मुज़फ़्फरनगर... …………………..!

कभी आपने सोचा,

बिना प्रशासन की इजाज़त कैसे 50,000 से ज़्यादा लोग पंचायत में इकट्ठे हो जाते हैं....!

खुलेआम नफ़रत के भाषण होते हैं... !

राजनीतिक रोटियां सेकी जा रही हैं.....

लाशें,
चीखें,
डर,
ख़ामोशी... …………..!

आख़िर कौन लेगा इस सबकी ज़िम्मेदारी…….??

कभी सोचा आपने.... ?

रोकिए इस सब को !

क्योंकि क्या हिन्दू क्या मुसलमान...!

भरोसा टूट रहा है सबका....!

और किसी भी हुकूमत का खूबसूरत महल खड़ा होता है तो सिर्फ़ आवाम के भरोसे की बुनियाद पर... !

‘सरिता शर्मा’ का एक शेर याद आ रहा है....

अगर लौटा सको तो टूटता विश्वास लौटा दो,
बनो बादल धरा को फिर पुरानी प्यास लौटा दो !
अगर मजबूर हो तुम प्यार सच्चा दे नहीं सकते,
तो झूठा ही सही पर प्यार का एहसास लौटा दो !!

~ Imran Pratapgarhi

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