आपका-अख्तर खान

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13 मई 2013

तुम्हारे ग़म का बज़ाहिर निशां नहीं मिलता

तुम्हारे ग़म का बज़ाहिर निशां नहीं मिलता
बयाँ करू भी तो तर्ज़ ए बयाँ नहीं मिलता

ज़रा निगाह को कुछ मोतबर बना लीजे
जहाँ में चाहने वाला कहाँ नहीं मिलता

जिन्हें ग़ुरूर था दुनिया को जीत लेने का
वो खाक़ हो गए उनका निशाँ नही मिलता

मैं एक रात सुकूं से जहाँ गुज़ार सकूँ
भटक रही हूँ मगर वो मकां नहीं मिलता ,

न जाने कौन सी बस्ती में आ गई हूँ मैं
यहाँ पे मुझको कोई हमज़बां नहीं मिलता

पराई पीर का एहसास ही नहीं होता
अगर मुझे वो मिरा मेहरबां नहीं मिलता

तिरी तलाश में निकली तो खो गयी मै भी
ये वो जहाँ है जो सबको यहाँ नहीं मिलता

अमल करो तो खुलेगे हज़ार दरवाज़े
शिकायतों से 'सिया' कुछ यहाँ नहीं मिलता

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