आपका-अख्तर खान

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14 मई 2013

हर गली की जान अब जाने लगी

रफ ...
हर गली की जान अब जाने लगी
जात पहले नाम के आने लगी/

जब नक़ाब-ए-दोस्ती बिकने लगी
साँस घुटती सिसकियाँ भरने लगी/

शक्ल असली सामने आ ही गयी
चुस्त बखिया थी मगर खुलने लगी/

कम नहीं थे गम यहाँ पहले भी कुछ
लो अटकती साँस भी रुकने लगी/

दूरियों के छुप ना पाये तब निशाँ
जब ज़रा सी बात भी बढ़ने लगी/

इश्क भी ना बच सका माहौल से
चाल शतरंजी यहाँ बिछने लगी/

बात से बातें न निकलें इसलिये
अब पुरानी ये रविश मिटने लगी/

बादशाहत जब खिलौना बन गयी
चाभियों से सल्तनत चलने लगी/

बारहा बदली जुबां उसने मगर
महफ़िलों में भीड़ फ़िर जुटने लगी/

तोड़ बस्ती जो बनीं ईमारतें
अब वहीँ अस्मत खुली लुटने लगी

सड़क पर अस्मतें बिकने लगी/

कठघरे में डाल तहज़ीब-ए-जवां
खुद बुज़ुर्गों की नज़र डँसने लगी/

देख लो लोगो बदल लो सोच को
रूह तक अब झूठ से मरने लगी/

दिन निकलना जब शहर में कम हुआ
जुर्म की काली फसल उगने लगी

खाक इंसाँ हो ‘भरत’ कुछ तो करो
फ़िर कलम बाज़ार में बिकने लगी/

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