रफ ...
हर गली की जान अब जाने लगी
जात पहले नाम के आने लगी/
जब नक़ाब-ए-दोस्ती बिकने लगी
साँस घुटती सिसकियाँ भरने लगी/
शक्ल असली सामने आ ही गयी
चुस्त बखिया थी मगर खुलने लगी/
कम नहीं थे गम यहाँ पहले भी कुछ
लो अटकती साँस भी रुकने लगी/
दूरियों के छुप ना पाये तब निशाँ
जब ज़रा सी बात भी बढ़ने लगी/
इश्क भी ना बच सका माहौल से
चाल शतरंजी यहाँ बिछने लगी/
बात से बातें न निकलें इसलिये
अब पुरानी ये रविश मिटने लगी/
बादशाहत जब खिलौना बन गयी
चाभियों से सल्तनत चलने लगी/
बारहा बदली जुबां उसने मगर
महफ़िलों में भीड़ फ़िर जुटने लगी/
तोड़ बस्ती जो बनीं ईमारतें
अब वहीँ अस्मत खुली लुटने लगी
सड़क पर अस्मतें बिकने लगी/
कठघरे में डाल तहज़ीब-ए-जवां
खुद बुज़ुर्गों की नज़र डँसने लगी/
देख लो लोगो बदल लो सोच को
रूह तक अब झूठ से मरने लगी/
दिन निकलना जब शहर में कम हुआ
जुर्म की काली फसल उगने लगी
खाक इंसाँ हो ‘भरत’ कुछ तो करो
फ़िर कलम बाज़ार में बिकने लगी/
रफ ...
हर गली की जान अब जाने लगी
जात पहले नाम के आने लगी/
जब नक़ाब-ए-दोस्ती बिकने लगी
साँस घुटती सिसकियाँ भरने लगी/
शक्ल असली सामने आ ही गयी
चुस्त बखिया थी मगर खुलने लगी/
कम नहीं थे गम यहाँ पहले भी कुछ
लो अटकती साँस भी रुकने लगी/
दूरियों के छुप ना पाये तब निशाँ
जब ज़रा सी बात भी बढ़ने लगी/
इश्क भी ना बच सका माहौल से
चाल शतरंजी यहाँ बिछने लगी/
बात से बातें न निकलें इसलिये
अब पुरानी ये रविश मिटने लगी/
बादशाहत जब खिलौना बन गयी
चाभियों से सल्तनत चलने लगी/
बारहा बदली जुबां उसने मगर
महफ़िलों में भीड़ फ़िर जुटने लगी/
तोड़ बस्ती जो बनीं ईमारतें
अब वहीँ अस्मत खुली लुटने लगी
सड़क पर अस्मतें बिकने लगी/
कठघरे में डाल तहज़ीब-ए-जवां
खुद बुज़ुर्गों की नज़र डँसने लगी/
देख लो लोगो बदल लो सोच को
रूह तक अब झूठ से मरने लगी/
दिन निकलना जब शहर में कम हुआ
जुर्म की काली फसल उगने लगी
खाक इंसाँ हो ‘भरत’ कुछ तो करो
फ़िर कलम बाज़ार में बिकने लगी/
हर गली की जान अब जाने लगी
जात पहले नाम के आने लगी/
जब नक़ाब-ए-दोस्ती बिकने लगी
साँस घुटती सिसकियाँ भरने लगी/
शक्ल असली सामने आ ही गयी
चुस्त बखिया थी मगर खुलने लगी/
कम नहीं थे गम यहाँ पहले भी कुछ
लो अटकती साँस भी रुकने लगी/
दूरियों के छुप ना पाये तब निशाँ
जब ज़रा सी बात भी बढ़ने लगी/
इश्क भी ना बच सका माहौल से
चाल शतरंजी यहाँ बिछने लगी/
बात से बातें न निकलें इसलिये
अब पुरानी ये रविश मिटने लगी/
बादशाहत जब खिलौना बन गयी
चाभियों से सल्तनत चलने लगी/
बारहा बदली जुबां उसने मगर
महफ़िलों में भीड़ फ़िर जुटने लगी/
तोड़ बस्ती जो बनीं ईमारतें
अब वहीँ अस्मत खुली लुटने लगी
सड़क पर अस्मतें बिकने लगी/
कठघरे में डाल तहज़ीब-ए-जवां
खुद बुज़ुर्गों की नज़र डँसने लगी/
देख लो लोगो बदल लो सोच को
रूह तक अब झूठ से मरने लगी/
दिन निकलना जब शहर में कम हुआ
जुर्म की काली फसल उगने लगी
खाक इंसाँ हो ‘भरत’ कुछ तो करो
फ़िर कलम बाज़ार में बिकने लगी/
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