छोडो भी बीत गया -
रोकते पकड़ते - बस
अच्छा वो दौर गया .
एक दिन और गया .
जीवन की डोरी -
होती और छोटी,
साँसों की आहट-
धीमी मद्धम होती.
मृत्यु की -डगर पर -
प्राणों का दौर गया .
एक दिन और गया .
नभ में - जीवन पतंग
उडती पर पंख तंग -
हवाओं से ठनी- जंग .
मन के मरुस्थल में-
बादलों का शोर गया .
एक दिन और गया .
भीगे दृग - ढूँढ़ते हैं
राहों के - सर्प दंश
मन के - इस दर्पण में
विचरते अब नहीं हंस .
भटके अरण्यों में -
कहाँ मगर ठौर गया .
एक दिन और गया .
पल -छिन से भागते
दिवस शाम -जागते से सोते
हम हुए - तो क्यों हुए
काश हम ना होते .
कहने -सुनाने में-
जीवन का छोर गया .
एक दिन और गया .
छोडो भी बीत गया -
रोकते पकड़ते - बस
अच्छा वो दौर गया .
एक दिन और गया .
जीवन की डोरी -
होती और छोटी,
साँसों की आहट-
धीमी मद्धम होती.
मृत्यु की -डगर पर -
प्राणों का दौर गया .
एक दिन और गया .
नभ में - जीवन पतंग
उडती पर पंख तंग -
हवाओं से ठनी- जंग .
मन के मरुस्थल में-
बादलों का शोर गया .
एक दिन और गया .
भीगे दृग - ढूँढ़ते हैं
राहों के - सर्प दंश
मन के - इस दर्पण में
विचरते अब नहीं हंस .
भटके अरण्यों में -
कहाँ मगर ठौर गया .
एक दिन और गया .
पल -छिन से भागते
दिवस शाम -जागते से सोते
हम हुए - तो क्यों हुए
काश हम ना होते .
कहने -सुनाने में-
जीवन का छोर गया .
एक दिन और गया .
रोकते पकड़ते - बस
अच्छा वो दौर गया .
एक दिन और गया .
जीवन की डोरी -
होती और छोटी,
साँसों की आहट-
धीमी मद्धम होती.
मृत्यु की -डगर पर -
प्राणों का दौर गया .
एक दिन और गया .
नभ में - जीवन पतंग
उडती पर पंख तंग -
हवाओं से ठनी- जंग .
मन के मरुस्थल में-
बादलों का शोर गया .
एक दिन और गया .
भीगे दृग - ढूँढ़ते हैं
राहों के - सर्प दंश
मन के - इस दर्पण में
विचरते अब नहीं हंस .
भटके अरण्यों में -
कहाँ मगर ठौर गया .
एक दिन और गया .
पल -छिन से भागते
दिवस शाम -जागते से सोते
हम हुए - तो क्यों हुए
काश हम ना होते .
कहने -सुनाने में-
जीवन का छोर गया .
एक दिन और गया .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
दोस्तों, कुछ गिले-शिकवे और कुछ सुझाव भी देते जाओ. जनाब! मेरा यह ब्लॉग आप सभी भाईयों का अपना ब्लॉग है. इसमें आपका स्वागत है. इसकी गलतियों (दोषों व कमियों) को सुधारने के लिए मेहरबानी करके मुझे सुझाव दें. मैं आपका आभारी रहूँगा. अख्तर खान "अकेला" कोटा(राजस्थान)