कौरवों
की सभा में द्रोपदी का रोना- कलपना ही तो कृष्ण को व्याकुल कर गया था। उस
दिन द्रोपदी के चीर की मर्यादा रखने के खातिर ही मानो वो जवानी के शुरूआती
दिनों में यमुना के किनारे गोपियों के चीर एकत्र करता रहता था। एक औरत के
सत और सम्मान की रक्षा के लिये सारी उम्र के पुण्य भी खर्च कर देने पड़ें
तो कैसा संकोच? गोंधारी ने उलाहना दिया कि कृष्ण चाहता तो सारी समस्या का
सुहाना समाधान हो सकता था। लेकिन कृष्ण ने युद्व को टालने के लिये क्या कम
कोशिश की थी? गांधारी जब श्राप देने लगी तो कृष्ण कहना तो चाहता था कि कोई न
कोई महाभारत हम सब के हृदय में चल रहा है, लेकिन जिन्होंने युद्व के मैदान
में उतरने के बावजूद हथियार हाथों में नहीं उठाने का प्रण लिया हो,
उन्हें भी जब युद्व की भयावहता से जन्में श्राप भुगतने पड़ें तो फिर
युद्वों से किसी के भी कल्याण की उम्मीद की ही कहाँ जा सकती है? युद्व कभी
जीवन का सगा साबित नहीं हुआ। न हुआ है, न होगा।
(कृष्ण के जीवन पर आधारित राजस्थानी उपन्यास का अनुवादित अंश)
(कृष्ण के जीवन पर आधारित राजस्थानी उपन्यास का अनुवादित अंश)
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