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19 मई 2013

"बाबा के मरने के बाद भी

"बाबा के मरने के बाद भी
मैं सुन सकता हूँ उनकी खांसती आवाज
और उस आवाज़ के बीच में गाय का रम्भाना
वह मरफ़ी का ट्रांजिस्टर और उसके साथ भजन गुनगुनाना
पाकिस्तान के हमले की बुलेटिन पर बुदबुदाती विबशता
दूर शहर में बंगले में नाती, गमले के पौधे
और गाँव में गाय को पानी पिलाने की चिंता
वह गाँव में दोपहर को पंहुचता सुबह का अखबार
जिसको पढ़ कर बांचे जाते थे समाचार और समाज के सरोकार
जिन्दगी की शाम को सुबह का इंतज़ार
उम्र के अंतिम दौर में
दादी का अपने सुहाग के दीर्घायु होने का अब भी शर्माता सा सपना
वह रात को सोते समय दूध का गिलास
वह सुबह ..वह आँगन ...वह तुलसी का घरोंदा
वह भूरा और कलुआ जैसा जूठन पर अधिकार जताता कुत्ता
जिसकी आँखों में हिंसा कम और प्यार ज्यादा था
अब तो दादी- बाबा की बस स्मृति शेष है
बाबा की बरसी पर पिता और चाचाओं ने बेच दिया था बाबा का मकान
वह बूढा बैल, श्यामा गाय, शीसम का तखत,
उम्र की दीमग से सहेज कर रखी
दादी के यहाँ से दहेज़ में आयी मेज
जूट के पट्टे पर झूला सा झुलाती वह आराम कुर्सी
वह लोभी आढ़तिया अब भी अपनी गद्दी पर लेटा है
पापा के पढने को दादी की हंसुली गिरवी रखी जहां थी
वह तोता भी उड़ गया कहीं
वह पिजड़ा भी अब खाली है
यह स्मृति है... स्मृति का क्या ?
अब तो स्मृत ही शेष बची है
चलो यहाँ
कल अपनी भी बारी होगी
कुछ ऐसी ही तैयारी होगी." ----राजीव चतुर्वेदी

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