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04 मई 2013

कविता ह्म्ल नहीं ढोती

कविता ह्म्ल नहीं ढोती
गर्भिणी स्त्री की तरह
शापित दुखी होती है
पर बाँझ भी नहीं होती .

बहार की तरह खिलती है
और पलभर में पतझर के
सूखे पात सी झर जाती है
कभी किसी लब पर
बेखास्ता चढ़ जाती है

और कभी कभी यूँही -
अनदेखी अपेक्षित सी
पहले प्रसव में -
बमौत भी मर जाती है .

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