हरा-भरा 43 एकड़ के बगीचे की देखभाल में उम्र के 74 वसंत देख चुके बजरंग
केडिया को उनकी ऊर्जा और लगन से करते देख हैरत होती है. इस बगीचे में 17 सौ
आम के पेड़ों के अलावा चीकू,मुनगा अमरूद,खम्हार और बांस,नीलगिरी के पेड़
है. मई माह के इनदिनों आम के पेड़ों से ‘मीठा मेवा’ टूट रहा है. बंजर भूमि
पर जो सपना उन्होंने 18 साल पहले देखा था वो साकार हो चुका है.
मेरा और
केडियाजी का नाता करीब पैंतीस साल पुराना है. मैं अपने पिताजी श्री चमनलाल
चड्ढा के साथ दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित कृषि प्रदर्शनी में शिरकत
करने गया था. वहां केडियाजी मिले वे तब लोकस्वर से जुड़े थे. बाद नव-भारत
बिलासपुर में हमने साथ करीब नौ बरस काम किया.कालान्तर वो ‘नव-भारत’ के
सम्पादक बने और मैं ‘दैनिक-भास्कर’ का संपादक. दोनों को निष्ठा अपने-अपने
संस्थान के साथ थी पर हमारी मैत्री बनी रही. सही अर्थों में केडियाजी और
मैं रेल की दो पांतो के समान हैं,जो साथ-साथ चलती हैं पर मिलती कभी नहीं,
विचारों के मामले में ये दशा आज भी बरकार है.पर मैं आम उत्पादन में उनकी
मेहनत, लगन और दूरदर्शिता का लोहा मानता हूं.
प्रख्यात कृषि विज्ञानी डा.रामलाल कश्यप ने सबसे पहले ये जाना कि, छतीसगढ़
के बिलासपुर की आबो-हवा आम उत्पादन के माकूल है. उन्होंने केडियाजी को
प्रेरित किया.और अपनी फिर चुन-चुन के इस भूमि में दशहरी,लंगड़ा,हाफुजा
[अलफांसो] आम्रपाली जैसे आम के पौधे गाँव भरारी के इस बगीचे में लगाये.
बगीचे की फेंसिंग कर बंदरों से बचाव के लिए कुत्ते पाले गए. आज इस बगीचे को
केडियाजी के माता स्वर्गीय ‘जड़िया’ के नाम से जाना जाता है. एक साल में
तेरह लाख की रिकार्ड आय ये बगीचा दे चुका है.
यहाँ के आबो-हवा में आम
की फसल यूपी से एक माह पहले मीठी रसली हो जाती है. इसलिए मुनाफा भी चौखा
होता है. उलटे बांस बरेली को की भांति इन दिनों बिलासपुर का आम बनारस भी
निर्यात होता है. इतनी पैदावार लेनी है, तो पेड़ों की सेवा भी बच्चों के
समान करनी होती है .इसके लिए केंचुआ खाद का बड़े पैमाने में बगीचे में ही
उत्पादन होता है. अवधारणा है कि संगीत का असर पेड़ों पर होता है, इसलिए
फार्म हॉउस में इसका इंतजाम किया गया है. पेड़ों पर कीटनाशक का छिड़काव,के
अलावा सिंचाई के लिए तीन पंप और पाईप का पूरा जाल हर तरह बिछा है. इन सब
कामों में दो दर्जन मजदूरों को रोजगार मिला है.
बिलासपुर से चौबीस
किलोमीटर दूर इस बगीचे की सफलता के बाद इस किसानों ने प्रेरित हो कर आम के
बगीचे लगा लिए हैं. दिसम्बर माह में आम के बौर आने लगते हैं और जून के पहले
सप्ताह तक आम की फसल पैक कर मिनी ट्रक से खेप में बाज़ार पहुँच जाती है.
बौर और आम तोड़ाई के बीच वसंत में तीन-चार बार आंधी-बारिश से अमियाँ टूट कर
बिखर जाती है. केडिया जी कहते है,आम के पेड़ को ये भी कुदरत की देन है,अगर
ये न हो तो फल के भार से नमन करती डालियाँ ही बाद में टूट कर बिखर जाएगी.
आम को फलों का राजा माना जाता है. पर अलफांसो तो आमों में राजा है.
बिलासपुर का अल्फ़ान्सो रत्नागिरी के अल्फ़ान्सो से कम नहीं ,मेरे समधिन
आशा महाडिक मेरे लिए मुम्बई से अल्फ़ान्सो की पेटी लाईं तो हमने या मिलन कर
देखा-परखा..ये बिलासपुर की आबोहवा में हर साल फलने वाला आम के रूप में
चिन्हित किया गया है. कृषि विभाग को इन पेड़ों से और पेड़ तैयार करना
चाहिए. इन्सान की मेहनत बंजरभूमि में फल खिला सकती है ये आम्र-वाटिका इसकी
मिसाल है.कभी जहाँ वीरना था. आज वहां कोयल की कूहू-कुहू सुनाई देती है.
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