आजकल मुस्लिम वर्ग में जामिया मिल्लिया इस्लामिया को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक
शैक्षिक संस्थान आयोग ( एनसीएमईआई ) द्वारा आरक्षण दिए जाने पर जश्न का
माहौल है। एनसीएमईआई ने जामिया को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने की
मांग ली और हाल ही में इस आयोग द्वारा इसकी घोषणा भी कर दी गई। लेकिन इस
घोषणा के बाद जश्न में डूबे मुस्लिम वर्ग को इस बात का पता नहीं कि इस
प्रकार के आरक्षण से लाभ के बजाय हानि होगी। धर्म के आधार पर दिए गए आरक्षण
का सबसे अधिक नुकसान मुस्लिम कौम को होने वाला है। वह कैसे ?
बंद होंगे दरवाजे
वह ऐसे कि अब जब मुस्लिम बच्चे किसी स्कूल , कॉलेज में दाखिला लेने जाएंगे
या किसी नौकरी के लिए इंटरव्यू में बैठेंगे तो सामने बैठे गैर - मुस्लिम
अफसर के मन में अवश्य यह विचार आएगा कि मैं इसको क्यों लूं। इसे तो जामिया ,
अलीगढ़ , उस्मानिया आदि मुस्लिम संस्थानों में जाना चाहिए। मेरी जनरल
कैटेगरी के ब्राह्मण को सहारा देने वाला तो कोई नहीं। इस प्रकार जो चंद गैर
- मुस्लिम दरवाजे अल्पसंख्यकों पर खुल जाते थे , जामिया के आरक्षण के बाद
वे भी बंद हो जाएंगे। जामिया आरक्षण के संबंध में छोटे - बड़े मुस्लिम नेता
पोस्टरबाजी में , प्रेस विज्ञप्तियों में और अपने फोटो छपाने में एक दूसरे
पर होड़ लेने में जुटे हैं। उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं कि धर्म पर
आधारित आरक्षण गैरकानूनी है।
प्रेशर कुकर एग्जिस्टेंस
आज भी
मुस्लिम समाज की स्थिति ' प्रेशर कुकर एग्जिस्टेंस ', अर्थात एक दम फट
पड़ने जैसी है। मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानों को नाना प्रकार के मकड़जालों
में फांस रखा है , जिनमें से कुछ हैं - अलीगढ़ और जामिया विश्वविद्यालयों
का धर्म के आधार पर आरक्षण , सच्चर कमेटी , शाहबानो केस , रंगनाथ मिश्रा
आयोग , लिब्राहन आयोग , उर्दू भाषा आदि। ये सभी ऐसे मुद्दे हैं जिनका एक आम
मुसलमान की रोजाना की जिंदगी से कोई सीधा संबंध नहीं है। इनका महत्व
प्रतीकात्मक है। भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपरा के तहत सदियों से हिंदुओं और
मुसलमानों ने एक साथ मिलकर कई कारनामे अंजाम दिए हैं। बहुत सी बस्तियों में
वे मिल - जुलकर रहते चले आए हैं। एक ही माहौल में मंदिर के घंटों को
मुसलमानों ने और मुअज्जिन की अजान को हिंदुओं ने मान - सम्मान दिया है।
आरक्षण जैसी दीवारें इस मान - सम्मान को ठेस पहुचाती हैं।
इसमें
कोई दो राय नहीं कि मुस्लिम वर्ग आज की तारीख में सबसे अधिक पिछड़ा हुआ
माना जाता है। लेकिन पिछड़े मुसलमानों की शैक्षिक , आर्थिक और सामाजिक
स्थिति सुधारने के लिए आरक्षण कोई हल नहीं है। आरक्षण न तो धर्म के आधार
देना चाहिए और न ही जाति - बिरादरी के आधार पर। यदि धर्म एवं जाति के आधार
पर आरक्षण का झुनझुना बंटने लगा तो दलित मुस्लिम जैसे अंसारी , राजपूत ,
सलमानी , मलिक , राईनी , मंसूरी , कुरैशी , इदरीसी ( दर्जी ), अलवी ,
अब्बासी , कस्सार ( धोबी ), मुस्लिम त्यागी , चौधरी , गद्दी , भटियारा ,
रंगरेज , सक्का , नाई , कलाल , जाट , मीरासी , मिर्जा , मनिहार , शम्सी ,
गाढ़ा , झोझा , मस्लिम गूजर ( पोल्हा ), बकरवाल , नज्जाफ , तेली , मुस्लिम
कुम्हार , सिद्दीकी , माहीगीर , कयामखानी , सुनार , जडि़या , सिपाही ,
बंजारा , घोसी , हलवाई , तुर्क ( पाशा ), नक्काल आदि भी कोटे की मांग करने
लगेंगे।
आज जो हम विभिन्न क्षेत्रों में कुछ मुस्लिम नौजवानों को
देखते हैं , उसका कारण यही है कि ये वहां मेहनत से अपना स्थान बना पाए हैं।
आरक्षण का सबसे बड़ा नुकसान मुसलमानों को यह होगा कि वे कर्मठ न रहकर आराम
तलब बन जाएंगे। इससे वे जो थोड़ी - बहुत प्रतियोगिताओं में अपनी उपस्थिति
दर्ज करा लेते हैं , उससे भी जाते रहेंगे। कुरान ( अध्याय 49: सूरत -13)
में बड़ी सफाई के साथ लिखा है कि इस्लाम में ज़ातिवाद का कोई महत्व नहीं है
क्योंकि , खुदा की निगाह में सब बराबर हैं और इस्लाम जाितयों में बंटे
समाज को स्वीकार नहीं करता।
सचाई यह है कि जिनको आरक्षण मिलना
चाहिए , उनको मिलता नहीं। अब इतने अधिक आरक्षण हो चुके हैं कि बेचारा जनरल
कैटेगरी वाला उनके बीच पिस चुका है और अस्ल में उसे आरक्षण की आवश्यकता है।
आरक्षण की यह हालत हो गई है कि अब मुस्लिम दलित , ईसाई दलित , रामगढि़या
सिख आदि भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं। राजस्थान में गुर्जर आरक्षित हो गए
हैं। यह कोई अच्छा ट्रेंड नहीं है। इससे भारत भले ही भौगोलिक आधार पर न
बंटे , मगर भारतवासियों के मन - मस्तिष्क में दीवारें अवश्य खड़ी होने लगी
हैं। 1947 में धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हो चुका है। अब हम आरक्षण के
आधार पर और कितने बंटवारे चाहते हैं ?
आरक्षित सीटों का इतिहास
देखते समय , हमें पता चलता है कि इसके होते समाज में हर किसी को समान रूप
से विकसित करने का उद्देश्य समाप्त हो चुका है। नौकरियों के लिए अब योग्य
उमीदवार नहीं मिलते हैं। आरक्षित सीटें सालों - साल से रिक्त रहती चली आ
रही हैं जिससे न केवल सामान्य जातियों वाले भारतवासियों का नुकसान हुआ है ,
बल्कि सरकारी क्षेत्रों में काम की हानि भी हुई है। 1993 में आईआईटी
मद्रास के निदेशक पी . वी . इंदिरेशन और आईआईची दिल्ली के निदेशक एन . सी .
निगम ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि अनुसूचित जाति और जनजाति की पचास
प्रतिशत सीटें आईआईटी में खाली रह जाती हैं।
गैर - इस्लामी बाड़ेबंदी
यह ठीक है कि समाज को धर्म या जातियों के आधार पर बांटकर कोटा नहीं देना
चाहिए। लेकिन जहां तक दलितों या मुसलमानों की पिछड़ी जातियों का संबंध है ,
उनके लिए मदद इसलिए आवश्यक हो जाती है क्योंकि सदियों से ये लोग सामाजिक ,
आर्थिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए हैं। निर्धन वर्गों के उत्थान के लिए
सरकार को अवश्य ही कुछ न कुछ करना चाहिए मगर उसे धर्म और जाति से अलग रखना
चाहिए। वहीं दूसरी ओर मुसलमानों को भी चाहिए कि वे जातिवाद से बचकर रहें ,
जो कि गैर - इस्लामी है। अच्छी शिक्षा ग्रहण कर वे अपनी आर्थिक व सामाजिक
स्थिति को सुधारें , न कि सामुदायिक आरक्षण के आधार
आजकल मुस्लिम वर्ग में जामिया मिल्लिया इस्लामिया को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान आयोग ( एनसीएमईआई ) द्वारा आरक्षण दिए जाने पर जश्न का माहौल है। एनसीएमईआई ने जामिया को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने की मांग ली और हाल ही में इस आयोग द्वारा इसकी घोषणा भी कर दी गई। लेकिन इस घोषणा के बाद जश्न में डूबे मुस्लिम वर्ग को इस बात का पता नहीं कि इस प्रकार के आरक्षण से लाभ के बजाय हानि होगी। धर्म के आधार पर दिए गए आरक्षण का सबसे अधिक नुकसान मुस्लिम कौम को होने वाला है। वह कैसे ?
बंद होंगे दरवाजे
वह ऐसे कि अब जब मुस्लिम बच्चे किसी स्कूल , कॉलेज में दाखिला लेने जाएंगे या किसी नौकरी के लिए इंटरव्यू में बैठेंगे तो सामने बैठे गैर - मुस्लिम अफसर के मन में अवश्य यह विचार आएगा कि मैं इसको क्यों लूं। इसे तो जामिया , अलीगढ़ , उस्मानिया आदि मुस्लिम संस्थानों में जाना चाहिए। मेरी जनरल कैटेगरी के ब्राह्मण को सहारा देने वाला तो कोई नहीं। इस प्रकार जो चंद गैर - मुस्लिम दरवाजे अल्पसंख्यकों पर खुल जाते थे , जामिया के आरक्षण के बाद वे भी बंद हो जाएंगे। जामिया आरक्षण के संबंध में छोटे - बड़े मुस्लिम नेता पोस्टरबाजी में , प्रेस विज्ञप्तियों में और अपने फोटो छपाने में एक दूसरे पर होड़ लेने में जुटे हैं। उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं कि धर्म पर आधारित आरक्षण गैरकानूनी है।
प्रेशर कुकर एग्जिस्टेंस
आज भी मुस्लिम समाज की स्थिति ' प्रेशर कुकर एग्जिस्टेंस ', अर्थात एक दम फट पड़ने जैसी है। मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानों को नाना प्रकार के मकड़जालों में फांस रखा है , जिनमें से कुछ हैं - अलीगढ़ और जामिया विश्वविद्यालयों का धर्म के आधार पर आरक्षण , सच्चर कमेटी , शाहबानो केस , रंगनाथ मिश्रा आयोग , लिब्राहन आयोग , उर्दू भाषा आदि। ये सभी ऐसे मुद्दे हैं जिनका एक आम मुसलमान की रोजाना की जिंदगी से कोई सीधा संबंध नहीं है। इनका महत्व प्रतीकात्मक है। भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपरा के तहत सदियों से हिंदुओं और मुसलमानों ने एक साथ मिलकर कई कारनामे अंजाम दिए हैं। बहुत सी बस्तियों में वे मिल - जुलकर रहते चले आए हैं। एक ही माहौल में मंदिर के घंटों को मुसलमानों ने और मुअज्जिन की अजान को हिंदुओं ने मान - सम्मान दिया है। आरक्षण जैसी दीवारें इस मान - सम्मान को ठेस पहुचाती हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि मुस्लिम वर्ग आज की तारीख में सबसे अधिक पिछड़ा हुआ माना जाता है। लेकिन पिछड़े मुसलमानों की शैक्षिक , आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए आरक्षण कोई हल नहीं है। आरक्षण न तो धर्म के आधार देना चाहिए और न ही जाति - बिरादरी के आधार पर। यदि धर्म एवं जाति के आधार पर आरक्षण का झुनझुना बंटने लगा तो दलित मुस्लिम जैसे अंसारी , राजपूत , सलमानी , मलिक , राईनी , मंसूरी , कुरैशी , इदरीसी ( दर्जी ), अलवी , अब्बासी , कस्सार ( धोबी ), मुस्लिम त्यागी , चौधरी , गद्दी , भटियारा , रंगरेज , सक्का , नाई , कलाल , जाट , मीरासी , मिर्जा , मनिहार , शम्सी , गाढ़ा , झोझा , मस्लिम गूजर ( पोल्हा ), बकरवाल , नज्जाफ , तेली , मुस्लिम कुम्हार , सिद्दीकी , माहीगीर , कयामखानी , सुनार , जडि़या , सिपाही , बंजारा , घोसी , हलवाई , तुर्क ( पाशा ), नक्काल आदि भी कोटे की मांग करने लगेंगे।
आज जो हम विभिन्न क्षेत्रों में कुछ मुस्लिम नौजवानों को देखते हैं , उसका कारण यही है कि ये वहां मेहनत से अपना स्थान बना पाए हैं। आरक्षण का सबसे बड़ा नुकसान मुसलमानों को यह होगा कि वे कर्मठ न रहकर आराम तलब बन जाएंगे। इससे वे जो थोड़ी - बहुत प्रतियोगिताओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेते हैं , उससे भी जाते रहेंगे। कुरान ( अध्याय 49: सूरत -13) में बड़ी सफाई के साथ लिखा है कि इस्लाम में ज़ातिवाद का कोई महत्व नहीं है क्योंकि , खुदा की निगाह में सब बराबर हैं और इस्लाम जाितयों में बंटे समाज को स्वीकार नहीं करता।
सचाई यह है कि जिनको आरक्षण मिलना चाहिए , उनको मिलता नहीं। अब इतने अधिक आरक्षण हो चुके हैं कि बेचारा जनरल कैटेगरी वाला उनके बीच पिस चुका है और अस्ल में उसे आरक्षण की आवश्यकता है। आरक्षण की यह हालत हो गई है कि अब मुस्लिम दलित , ईसाई दलित , रामगढि़या सिख आदि भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं। राजस्थान में गुर्जर आरक्षित हो गए हैं। यह कोई अच्छा ट्रेंड नहीं है। इससे भारत भले ही भौगोलिक आधार पर न बंटे , मगर भारतवासियों के मन - मस्तिष्क में दीवारें अवश्य खड़ी होने लगी हैं। 1947 में धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हो चुका है। अब हम आरक्षण के आधार पर और कितने बंटवारे चाहते हैं ?
आरक्षित सीटों का इतिहास देखते समय , हमें पता चलता है कि इसके होते समाज में हर किसी को समान रूप से विकसित करने का उद्देश्य समाप्त हो चुका है। नौकरियों के लिए अब योग्य उमीदवार नहीं मिलते हैं। आरक्षित सीटें सालों - साल से रिक्त रहती चली आ रही हैं जिससे न केवल सामान्य जातियों वाले भारतवासियों का नुकसान हुआ है , बल्कि सरकारी क्षेत्रों में काम की हानि भी हुई है। 1993 में आईआईटी मद्रास के निदेशक पी . वी . इंदिरेशन और आईआईची दिल्ली के निदेशक एन . सी . निगम ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि अनुसूचित जाति और जनजाति की पचास प्रतिशत सीटें आईआईटी में खाली रह जाती हैं।
गैर - इस्लामी बाड़ेबंदी
यह ठीक है कि समाज को धर्म या जातियों के आधार पर बांटकर कोटा नहीं देना चाहिए। लेकिन जहां तक दलितों या मुसलमानों की पिछड़ी जातियों का संबंध है , उनके लिए मदद इसलिए आवश्यक हो जाती है क्योंकि सदियों से ये लोग सामाजिक , आर्थिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए हैं। निर्धन वर्गों के उत्थान के लिए सरकार को अवश्य ही कुछ न कुछ करना चाहिए मगर उसे धर्म और जाति से अलग रखना चाहिए। वहीं दूसरी ओर मुसलमानों को भी चाहिए कि वे जातिवाद से बचकर रहें , जो कि गैर - इस्लामी है। अच्छी शिक्षा ग्रहण कर वे अपनी आर्थिक व सामाजिक स्थिति को सुधारें , न कि सामुदायिक आरक्षण के आधार
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