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18 मई 2013

ख़्वाजा हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया




बाबा फ़रीद के अनेक शिष्यों में से हज़रत जमाल हंसवी, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, हज़रत अली अहमद साबिर, शेख़ बदरुद्दीन इशाक और शेख़ आरिफ़ बहुत प्रसिद्ध सूफ़ी संत हुए। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (1238-1325 ई.) तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के महान और चिश्ती सिलसिले के चौथे सूफ़ी संत थे। उनके पूर्वज बुख़ारा से आकर उत्तर प्रदेश के बदायूं बदायूं ज़िले में बस गए थे। बदायूं में ही उनका जन्म हुआ था। उनका बचपन काफ़ी ग़रीबी में बीता। पांच वर्ष की अवस्था में उनके सिर से पिता का साया उठ गया। पिता अहमद बदायनी के स्वर्गवास के बाद उनकी माता बीबी जुलेख़ा ने उनका लालन-पालन किया। जब वे बीस वर्ष के थे तो अजोधन में, जिसे आजकल पाकपट्टन शरीफ़ (पाकिस्तान) कहा जाता है, उनकी भेंट बाबा फ़रीद से हुई। बाबा फ़रीद ने उन्हें काफ़ी प्रोत्साहित किया और उन्हें अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ने की दीक्षा दी। ख़्वाजा औलिया 1258 ई. में दिल्ली आए और ग़्यासपुर में रहने लगे। वहां उन्होंने अपनी ख़ानक़ाह बनाई। इसी बस्ती को आजकल निज़ामुद्दीन कहा जाता है। वहीं से लगभग साठ साल तक उन्होंने अपनी आध्यात्मिक गतिविधियां ज़ारी रखी। उनकी ख़नक़ाह में सभी वर्ग के लोगों की भीड़ लगी रहती थी।

ख़्वाजा औलिया के नेतृत्व में चिश्ती सिलसिले का भारत भर में विकास हुआ। उन्होंने अलाउदीन ख़िलजी समेत आठ सुल्तानों के शासन देखे लेकिन कभी भी उनके राज-दरबार में कदम नहीं धरा। सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी (1296-1316 ई.) ख़्वाजा औलिया के श्रद्धालु थे। उन्होंने उन्हें एक जागीर देनी चाही, परन्तु ख़्वाजा ने अस्वीकार कर दिया। किसी सुल्तान के दरबार में जाना उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा के ख़िलाफ़ समझा। यहां तक कि वे ना ही किसी सुल्तान को अपने यहाँ आने देते थे, यदि आ ही जाता तो वे दूसरे रास्ते से घर से निकल जाते थे। उनके द्वारा यह कहा गया काफ़ी प्रसिद्ध है, “मेरे घर के दो दरवाज़े हैं, अगर सुल्तान एक से अंदर आता है तो मैं दूसरे से बाहर चला जाता हूं।” यहां तक कि सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी ने जब उन्हें बातचीत का निमंत्रण दिया तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया।

यह भी कहा जाता है कि ग़यासुद्दीन तुग़लक़ (1320-25 ई.) ने बंगाल-विजय से लौटते समय ख़्वाजा औलिया को संदेश भेजा था कि वह दिल्ली छोड़े दें। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने इस पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था, “हुनूज दिल्ली दूर अस्त” यानी अभी दिल्ली दूर है। किसी घटना के कारण सुल्तान दिल्ली लौटने से पहले ही मर गया था। राजदरबार से उनके दूर रहने का एक प्रमुख कारण यह था कि वे उलेमा के साथ किसी तरह का विवाद उत्पन्न करना नहीं चाहते थे। उन दिनों सुल्तान के दरबार में उलेमाओं की तूती बोलती थी। ख़्वाजा की अत्यंत लोकप्रियता से कुछ उलेमा ईर्ष्या करते थे। उलेमाओं ने सुल्तान की नाराज़गी का लाभ उठाकर एक महज़र (न्यायसभा) आयोजित किया। इसमें समाअ को विवादित घोषित करते हुए ख़्वाजा के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी चाही। सुल्तान ख़ुद न्यायाधीश बना। लेकिन ख़्वाजा लोगों में इतने लोकप्रिय थे कि इसके डर से उनके खिलाफ़ कोई निर्णय न ले सके।

दिल्ली के शासकों के तौर तरीक़ों से दूर रहकर वे जनसेवा में प्रवृत्त रहे। किसी का दिया स्वीकार करना उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं था। कई-कई दिन भूखे रह लेते थे, लेकिन किसी से कुछ मांगते नहीं थे। उन दिनों वे कहा करते मैं तो ईश्वर का मेहमान हूं। मुझे क्या किसी से लेना-देना। अत्यंत पावन और पवित्र जीवन जीकर उन्होंने वैराग्य और सहनशीलता की अद्भुत मिसाल क़ायम की। वे सभी धर्मों के लोगों के बीच लोकप्रिय थे। उनके उपदेशों ने लोगों के दिलों को शांति प्रदान की। उन्होंने सामाजिक तनाव को कम करने के लिए लोगों को न सिर्फ़ प्रेम और भाईचारे के साथ रहने का संदेश दिया बल्कि अपने शिष्यों को निरंतर अन्य सामाजिक उत्तरदायित्व की भी याद दिलाते रहे।

तत्कालीन समाज में हिंदू-मुसलमानों की एकता और समाज-सुधार में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। विभिन्न वर्गों और धर्मों के लोगों के बीच वे किसी प्रकार का भेद भाव नहीं समझते थे। उनकी ख़ानक़ाह, जमातख़ाना और लंगर सभी लोगों के लिए समान रूप से खुला रहता था। मनुष्य मात्र की एकता के वे सच्चे प्रतीक थे। समाज-सेवा और मानव विकास उनका एक मात्र ध्येय था। आत्म-निंदा पर ध्यान न देना और अपराधी को क्षमा कर देना उनके विशेष गुण थे। समाज में आर्थिक बंधनों द्वारा ठुकराए हुए लोगों के लिए वे परम हितैषी थे। उनके इन अद्वितीय गुणों के कारण दिल्ली के सभी वर्गों के लोग उनपर अत्यंत श्रद्धा और विश्वास रखते थे।

ख़्वाजा निज़ामउद्दीन औलिया प्रकांड विद्वान थे। उन्हें क़ुरआन के भाष्याकार के रूप में भी याद किया जाता है। वे हदीस के संकलनकर्ता भी थे। धर्मशास्त्री और दार्शनिक होने के साथ-साथ वे कवि और साहित्यकार भी थे। उनके लिखे होली और फाग आम लोगों में आज भी लोकप्रिय हैं। संगीत में उनकी काफ़ी रुचि थी। सिद्ध और नाथ योगियों की बड़ी संख्या में बाबा की ख़ानक़ाह में गोष्ठी होती और विभिन्न विषयों पर चर्चा होती थी।

साईं सेवत गल गई, मास न रहिया देह

तब लग साईं सेवसाँ, जब लग हौं सो गेह

उन्हें महबूब-ए-इलाही और सुल्तान जी के नाम से भी पुकारा जाता था। वे दिल्ली में ही रहते थे और वहीं उनका देहान्त 3 अप्रैल 1325 को हुआ। उनके स्वर्गवास पर उनके शिष्य और सुप्रसिद्ध कवि हज़रत अमीर खुसरो ने कहा था :

गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस।

चल ‘खुसरौ’ घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥

उनकी अपनी बनाई हुई मस्जिद के आंगन में उनका भव्य मज़ार है। दक्षिण दिल्ली में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का मक़बरा सूफ़ियों के लिए ही नहीं अन्य मतावलंबियों के लिए भी एक पवित्र दरग़ाह है। इस्लामी कैलेण्डर के अनुसार प्रति वर्ष चौथे महीने की सतरहवीं तारीख़ को उनकी याद में उनकी दरगाह पर एक मेला लगता है जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों भाग लेते हैं।

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