धार्मिक सहिष्णुता और उदारता आदिकाल से ही भारतीय संस्कृति की प्रमुख
विशेषता रही है। मध्यकालीन भारत में मुसलमानों के आगमन से और खासकर दिल्ली
सलतनत की स्थापना के साथ-साथ हिन्दू और इसलाम धर्म के बीच गहन संपर्क हुआ।
इस दीर्घकालीन संपर्क ने दोनों धर्मों के अनुयाइयों को न सिर्फ़ परस्पर
प्रभावित किया, बल्कि उनके बीच धारणाओं, धार्मिक विचारों और प्रथाओं का
पारस्परिक आदान-प्रदान भी हुआ। भक्ति और प्रेम की भावना पर आधारित जिस पंथ
ने इसलाम धर्म में लोकप्रियता प्राप्त की उसे सूफ़ी पंथ कहते हैं। सूफ़ी
संप्रदाय का उदय इसलाम के उदय के साथ ही हुआ, किन्तु एक आन्दोलन के रूप में
इसलाम की नीतिगत ढांचे के तहत इसे मध्य काल में बहुत लोकप्रियता मिली।
सूफ़ी फ़क़ीरों ने अपने प्रेमाख्यानों द्वारा हिन्दू-मुस्लिम हृदय के
अजनबीपन को मनोवैज्ञानिक ढंग से दूर किया और साथ-साथ खण्डनात्मकता के स्थान
पर दोनों संस्कृतियों का सुन्दर सामंजस्य प्रस्तुत किया। सूफी चिंतन
वस्तुतः उस सत्य का उदघाटन है जिसमें जीवात्मा और परमात्मा की अंतरंगता के
अनेक रहस्य गुम्फित हैं।
सूफ़ी शब्द का अर्थ
सूफ़ी शब्द का प्रयोग
संतों के उस विशेष वर्ग के लिए किया गया, जिन्होंने स्वेच्छापूर्वक
सांसारिक सुख-सुविधाओं से मुंह मोड़कर अपने लिए अध्यात्म-साधना का दुर्गम
पथ निर्धारित किया। सूफ़ी सहायक को ब्रह्मज्ञानी और अध्यात्मवादी माना जाता
रहा है। वैसे भी “सूफ़ी” वही कहलाता है जो तसव्वुफ़ का अनुयायी और सारे
धर्मों से प्रेम करने वाला होता है। उन्होंने सादे जीवन और निश्छल ईश्वरीय
प्रेम पर ज़ोर दिया। फिर भी सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में
काफ़ी मतभेद रहा है।
विद्वानों ने अनेक दृष्टिकोणों से सूफ़ी शब्द को
व्युत्पन्न करने का प्रयास किया है। आठवीं-नौवीं शताब्दी में जब इस
विचारधारा का पंथ अस्तित्व में आया तब सूफ़ी लोग अरब में रहते थे और काफ़ी
समय तक उनकी पहचान उनके ऊनी लिबासों से की जाती रही। “सूफ़” शब्द का अर्थ
है ऊनी और इसीलिए वे संत जो ऊनी वस्त्र पहनते थे, सूफ़ी कहलाए। सादा जीवन
व्यतीत करने वाले सूफ़ी ऊनी चोंगा पहना करते थे।
कुछ विद्वानों का मत
है कि यह शब्द “सफ़” से निकला है, जिसका अर्थ सबसे आगे की पंक्ति या प्रथम
पंक्ति है। सूफ़ी अपने साहस, धैर्य और अपने उच्च चरित्र के कारण ख़ुदा के
सामने प्रथम पंक्ति में होता है, इसलिए वह सूफ़ी कहलाया। आगे की पंक्ति या
प्रथम श्रेणी में रखने से अभिप्राय है कि उसे क़यामत के दिन ईश्वर के समक्ष
प्रथम पंक्ति में खड़ा किया जाएगा क्योंकि उसने जीवन भर ईश्वर स्मरण ही
किया है।
कुछ दूसरे लोग इस शब्द को “सुफ़्फा” से बना हुआ मानते हैं,
जिसका अर्थ होता है “चबूतरा”। इस मत के मानने वालों का कहना है कि साऊदी
अरब के एक पवित्र नगर मदीना में मुहम्मद साहब द्वारा बनवाई मस्जिद के सामने
के के चबूतरे पर एकत्र होकर भक्ति करते, चिन्तन-मनन करते, ईश्वर के गुणगान
करते और ज्ञानोपार्जन में लगे रहते लोग सूफ़ी कहलाए। उन्हें
“अहले-सुफ़्फ़ा” अर्थात “चबूतरे पर बैठे लोग” कहा जाने लगा।
एक अन्य मत
के अनुसार अरबी भाषा में चटाई को सूफ़ी कहते हैं। सूफ़ी संत चटाई पर कतार
में बैठ कर ईश्वर की उपासना किया करते थे, और इसलिए वे सूफ़ी कहलाए।
इस
शब्द की एक अन्य व्युत्पत्ति “सोफ़िया” से भी कही गई है जिसका अर्थ है -
ज्ञान। इस ज्ञान का वैशिष्ट्य उसकी निर्मलता में निहित है। निर्मल प्रतिभा
सम्पन्न व्यक्ति ही सूफ़ी कहलाए।
एक और व्युत्पत्ति “सूफ़ाह” शब्द है
जिसका अभिप्राय सांसारिकता से विरत हो ख़ुदा की सेवा में निरत रहने वालों
से है। इसी तरह “बनू सूफ़ा” एक घुमक्कड़ जाति विशेष है।
कुछ विद्वानों
का मत है कि सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति “सफ़ा” से हुई है जिसका अर्थ होता है
विशुद्धता, पवित्रता या चित्त की शुद्धता। इस मत के अनुसार सूफ़ी वह होता
है जो सात्विक आचरण द्वारा धार्मिक या आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करता है। वह
सांसारिकता से दूर रहता है। जिसका हृदय सांसारिक वासनाओं से पवित्र होता
है। वह ईश्वर के प्रति प्रेम भाव से समर्पित होकर ईश्वर की प्रेमोपासना
करता है। इन विभिन्न मतों में सच चाहे जो भी हो सूफ़ी सम्प्रदाय की
प्रवृत्तियों को देखने से लगता है कि अंतिम व्याख्या इसके नाम के लिए अधिक
उपयुक्त है। वह व्यक्ति जो प्रेम के वास्ते मुसफ़्फ़ा होता है साफ़ी है और
जो व्यक्ति ईश्वर के प्रेम में डूबा हो, वही सूफ़ी होता है। ऐसे व्यक्ति
वैभवशाली जीवन के विरोधी थे। सूफ़ियों के मतानुसार मुहम्मद साहब को ईश्वर
से दो प्रकार की वाणियां प्राप्त हुई थीं – “इल्म-ए-सकीनां” (ग्रन्थ
ग्रंथित ज्ञान), जो क़ुरान शरीफ़ में संगृहीत है। दूसरी “इल्म-ए-सिना”, जो
हृदय में निहित थी। जहां आम लोगों ने ज्ञान का केवल बाह्य पक्ष ही लिया ,
वहीं सूफ़ियों ने दोनों प्रकार के ज्ञान को अपनाया। ज्ञान का वह प्रकार भी
जिसे तर्क से जाना जा सकता है और ज्ञान का वह आंतरिक प्रकार भी जो बुद्धि
की सीमा से बाहर है और जिसके लिए एकाग्रता और संयम के साथ साधना करनी पड़ती
है। वे बाह्य आडंबरों के स्थान पर भीतरी तत्वों पर बल देते हैं। वे
व्यक्तिगत साधनारत होते हुए भी लोक की अनदेखी नहीं करते। उसके मन में
परमात्मा के साथ-साथ प्राणीमात्र के प्रति उत्कट अनुराग भरा होता है। उनके
अन्दर गहरा मानवीय मूल्य-बोध होता है, जो संप्रदाय और साधना की सीमाओं में
नहीं अटता। वैचारिक उदारता उनके चरित्र का वैशिष्ट्य है। वे प्रेम को जीवन
के मूल तत्व के रूप में पहचानते हैं, पर ज्ञान के प्रति द्वन्द्वात्मक भाव
नहीं रखते। यह सच है कि “साधक” के लिए सूफ़ी शब्द का प्रयोग ईसा की नवीं
शताब्दी से प्रचलित होने का प्रमाण मिलता है। ये सूफ़िया सूफ़ीमनिश होते थे
अर्थात किसी भी धर्म या व्यक्ति से बैर न रखने वाले होते थे।
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