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09 अप्रैल 2013

"साहित्यकार समाज का प्रवक्ता होता है ...किस समाज का ?...संचितों के समाज का या वंचितों के समाज का ?

"साहित्यकार समाज का प्रवक्ता होता है ...किस समाज का ?...संचितों के समाज का या वंचितों के समाज का ? ...जो साहित्यकार संचितों के समाज का प्रवक्ता होता है उसे राजसत्ता से सरकारी पुरुष्कार और जो साहित्यकार वंचितों के समाज का प्रवक्ता होता है उसे सरकारी तिरष्कार ही मिलता है ...रास्ते साहित्यकार को स्वयं तय करने होते है ...जैसा रास्ता वैसा परिदृश्य ...संचितों के प्रवक्ता बन्ने का साहित्यिक परिदृश्य बहुत सुन्दर है ...आप तमाम मेनेजमेंट गुरुओं की किताबें देख लें ,अरिंदम चौधरी को देखलें ,शिव खेडा को देख लें ,चेतन भगत को देख लें ... संचितों के साहित्य के इस रास्ते पर साहित्य का बाजार होता है ,प्रकाशक होते हैं और सेल्स स्कीम की तरह पुरुष्कार हैं , सरकारी सहायता प्राप्त साहित्यिक गोष्ठीयां है सेमीनार हैं , कवि सम्मलेन के नाम पर होने वाले वस्तुतः "कवि मुजरे" हैं ,आनंद ही आनंद है ....दूसरी ओर इसके विपरीत वंचितों के प्रवक्ता बने साहित्यकारों के जीवन में संघर्ष है ,संघर्ष का कोलाहल है ...बलवीर सिंह "रंग", गोपाल सिंह "नेपाली', शिशुपाल सिंह "शिशु", दुष्यंत कुमार, अवतार सिंह "पाश" , आदम गोंडवी, हरिओम पंवार जैसे तमाम साहित्य के देवदार समाज के सीमान्त पर लगे हैं किन्तु बंगलों के गमलों में नहीं हैं ...व्यवहार के नजदीक पर बाजार से दूर हैं ...सरकारी साहित्य को समझने समझाने का दावा करने वाले साहित्य के शिक्षक प्रायः संचितों के प्रवक्ता साहित्यकारों को ही पढ़ते पढ़ाते हैं .बेचारे असली साहित्यकारों को पढ़ना तो दूर उनका नाम भी नहीं जानते और बाजार वंचितों के प्रवक्ता साहित्यकारों के रास्ते में होता ही नहीं है क्योंकि बाजार को खरीददार चाहिए और वंचितों की वेदना का खरीददार कहाँ ? वंचितों पर वेदना का प्रभाव और धन का अभाव जो होता है ...ऐसे लोगों को सरकार की नाराजगी "फ्री गिफ्ट" में मिलती है ...वस्तुतः सरकार हर ऐसे साहित्य की भ्रूण हत्या करना चाहती है ...सरकार को भयाक्रांत समाज की पहरेदारी करते भेड़िये नहीं पसंद हैं ,सरकार को तो भयभीत करने वालों की कोठियों के चौकीदार भोंकने वाले अच्छी नश्ल के कुत्ते चाहिए ...संचितों के समाज के प्रवक्ता साहित्यकारों के गले में पुरुष्कारों के पट्टे देखलें पहचान हो जायेगी ." ------राजीव चतुर्वेदी

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