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24 अप्रैल 2013

सफ़र में रोशनी की जब दुआयें माँगता हूँ

सफ़र में रोशनी की जब दुआयें माँगता हूँ
मैं अपनी माँ के क़दमों से जि़यायें माँगता हूँ।

मुझे महसूस होता है कि हूँ मैं क़र्बला में
मैं अपने भाईयों से जब वफ़ायें माँगता हूँ।

दरख़्तों के हज़ारों दर्द उग जाते हैं मुझमें,
नए पौधों से जब ताज़ी हवायें माँगता हूँ।

सज़ाएं दूसरों की अब तलक़ काटी हैं मैने
मैं अब अपने गुनाहों की सज़ायें माँगता हूँ।

न मक्का ही गया हूँ मै ना जा पाया मदीना,
मगर मैं हाजियों के संग दुआयें माँगता हूँ।

तआस्सुब के घने बादल नहीं दरकार मुझको,
ख़ुदाया मैं तो रहमत की घटाएं माँगता हूँ।

निग़ाहें उनपे अपनी इसलिए रख़ता हूँ यारों,
परिंदों से मैं उड़ने की अदायें माँगता हूँ।

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