आपका-अख्तर खान

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13 अप्रैल 2013

मैं जब भी कभी कभार कवियों की महफ़िल में जाता हूँ,

मैं जब भी कभी कभार कवियों की महफ़िल में जाता हूँ, वैसे तो मैं ज्ञानियों से ज़रा दूर ही रहता हूँ, मैं कविता की बजाय कवियों को बड़े ध्यान से देखता हूँ..उनके हाव भाव उनकी गतिविधियाँ...उनकी बाते...उनके इरादे...उनकी आँखे जो तलाशती रहती हैं सुन्दर देह को...

कुछ मजनूं मार्का बुड्ढे शायर लोग तो अपनी आँखों में सुरमा तक लगाते हैं...मैं पूछता हूँ ,'मियाँ सुरमा क्यों "
जवाब आता हैं ,'आँखे सुन्दर दिखती हैं '
मैं सोचता रह जाता हूँ ,' ओह ! बुढापे में भी...आँखे सुन्दर दिखती हैं या सुन्दरता देखती हैं'


सोकर उठने के बाद
दुबारा फिर कोई उकसाता हैं मन को
आओ, चलो सपने देखे,
मैं नींद की टूटी हुई खाट हूँ
सपने अब कैसे आयेंगे,
रथ का रुका हुआ पहियाँ
अपने आप नहीं
खीचने से चलता हैं ,
जीवन की साहसिक गति
इन्ही पहियों में कैद हैं ,
दुस्साहसी मन ना जाने
क्यों फिर से
सपने देखना चाहता हैं
पहियों की आहट
गति में प्रवाल लाती हैं
अनहुई रात अब भी
सपने देखने को ललचाती हैं.............रवि विद्रोही

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