"क्रान्ति का तेरा करिश्मा झूठ का सारांश था
तुमने जब दीवारें ढहा दीं तो छत कहाँ बाकी बची ,
वक्त की वहशी हवाएं और सर पर आसमाँ
भूख तेरी, खेत मेरे , आढ़तें आज भी उनकी
तुमने खेतों में कॉलोनी बसा दी रोटी कहाँ बाकी बची .
जब कभी हैरत से वह देखने लगता है तेरी समृद्धि को
तो समझ लेना क़ि उसमें गैरत कहाँ बाकी बची " ----राजीव चतुर्वेदी
तुमने जब दीवारें ढहा दीं तो छत कहाँ बाकी बची ,
वक्त की वहशी हवाएं और सर पर आसमाँ
भूख तेरी, खेत मेरे , आढ़तें आज भी उनकी
तुमने खेतों में कॉलोनी बसा दी रोटी कहाँ बाकी बची .
जब कभी हैरत से वह देखने लगता है तेरी समृद्धि को
तो समझ लेना क़ि उसमें गैरत कहाँ बाकी बची " ----राजीव चतुर्वेदी
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