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24 मार्च 2013

जब नहीं छिड़ी होती जंग सरहदों

Mridula Shukla
जब नहीं छिड़ी होती जंग सरहदों पर
तब भी तो जूझते रहते हो तुम
लड़ते रहते हो अनेको जंग भीतर और बाहर
जब पड़ रही होती है बाहर भयानक बर्फ
सीने में धधकता सा रहता है कुछ

और रेत के बवंडरों में मन में उमड़ घुमड़
बरसता सा रहता है कुछ
जाने कैसे निभाते हो कई- कई मौसम एक साथ........

विषम परिस्थतियों में सरहदों रह रहे रणबांकुरों को सादर समर्पित .........
पहाड़
तुम्हारे घर जैसे मकान के पीछे
दूर पहाड़ों के पीछे जो बर्फ गिरी है
वो अब तक ठंडी महकती खूबसूरती
का भ्रम थी मेरे लिए

उसे देख कविता के बीज पड़ते थे मेरे भीतर
उसके सन्नाटे मेरे भीतर बजते थे
अनहद नाद की तरह
तब बर्फ का मतलब मेरे लिए
शुचिता पवित्रता अनछुआ भोलापन था
ओह...............................
आज देखी मैंने उसके भीतर धधकती
कुछ सीमा प्रहरियों के अकेलेपन की आग
अचानक देखा दूर पहाड़ों पर उठता धुंआ
और उसमे डूबती तुम्हारी
बोझिल शाम और अकेली उदास रात
उस आग मैं झुलसते देखी
तमाम छोटी बड़ी ख्वाहिशें
तुम्हारी खुद की
और तुम्हारे अपनों
लेकिन तुम्हे जलाए रखनी होगी ये आग ......
क्यूंकि इस आग मैं पकते है
एक मुल्क की मीठी नींद के सपने ..

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