Saroj Singh
चन्द्रमा की कलाओं' से
घटते बढ़ते तुम !
कभी अमावास से
तनहा और उदास!
कभी तुममे ,
पूनम' सा परिहास
निकलते रोज़ हो
जाने किसको जोहते हो
हर खिड़की,हर मुंडेर तक
हर छत,हर सबेर तक
जब तुम निकलते हो
बहुत छोटे होते हो
फिर जैसे जैसे
तुम्हारी तलाश
उसे मिलने की आस
बढती जाती है,
तुम बड़े होते जाते हो
और जब वो
नहीं मिलती
तब थक जाते हो
उदास हो जाते हो
और फिर एक रात,
निकलते ही नहीं ढूंढने को,
उसी रात,
तुम्हारे दिल में
बंधती है फिर,आस'
फिर निकल पड़ते हो
उसकी तलाश में
फलक के चाँद को तो
चांदनी की तलाश है
ए जमीं के 'चाँद'
तुम्हें किसकी तलाश है .............?
~s-roz~
कभी लिखा था एक दोस्त के लिए।।।।। जिसकी आस भी टूटी नहीं है , और तलाश भी झूठी नहीं है !!
चन्द्रमा की कलाओं' से
घटते बढ़ते तुम !
कभी अमावास से
तनहा और उदास!
कभी तुममे ,
पूनम' सा परिहास
निकलते रोज़ हो
जाने किसको जोहते हो
हर खिड़की,हर मुंडेर तक
हर छत,हर सबेर तक
जब तुम निकलते हो
बहुत छोटे होते हो
फिर जैसे जैसे
तुम्हारी तलाश
उसे मिलने की आस
बढती जाती है,
तुम बड़े होते जाते हो
और जब वो
नहीं मिलती
तब थक जाते हो
उदास हो जाते हो
और फिर एक रात,
निकलते ही नहीं ढूंढने को,
उसी रात,
तुम्हारे दिल में
बंधती है फिर,आस'
फिर निकल पड़ते हो
उसकी तलाश में
फलक के चाँद को तो
चांदनी की तलाश है
ए जमीं के 'चाँद'
तुम्हें किसकी तलाश है .............?
~s-roz~
कभी लिखा था एक दोस्त के लिए।।।।। जिसकी आस भी टूटी नहीं है , और तलाश भी झूठी नहीं है !!
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