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04 मार्च 2013

"अरमानो के वीरानों में वक्त जो चीखा इक चिड़िया सा,

Rajiv Chaturvedi
"अरमानो के वीरानों में वक्त जो चीखा इक चिड़िया सा,
खामोशी कुछ कहती जब तक
आहत आहों की आहट ने
दिल के दरवाजों पर दस्तक दी थी
खोलो तुम भी द्वार और फिर बोलो
सत्य हमेशा ही सहमा सा क्यों रहता है
शाम ढले चिड़िया क्यों शोकाकुल सी है
और वहाँ बूढ़े बरगद की टहनी क्यों हिलती है
और उदासी तेरी-मेरी
कलकल बहती नदियों में अब कालखंड सी क्यों कंपती है
शब्द हमारे होठों पर जो सहमे थे गुमनाम होगये
चाँद छिपा उस झुरमुट में तुम देख रहे हो
हर किनारा वक्त का संकेत पढता तो
सहम कर क्यों खड़ा होता
निगहबानी कर रही हर आँख आहत है
आज सूरज सोचता है शाम के खोये ख्यालों में
सत्य के संकेत ओझल हैं क्यों निगाहों में
और तारों टिमटिमा कर पूछते हैं,--- टूट कर बिखरे थे कैसे ?
बिखर कर निखरे थे कैसे ?
आँधियों के हौसले को देख क्यों घोंसले घबरा रहे हैं
और सुगंधों के सौदागर से तर्क कर रही तितली देखो
उत्तर के आरोप सवालों की सूली पर
हर चिड़िया मुडेर पर बैठी पूछ रही है
खामोशी में खोगये मकानों की अब गिनती." ---- राजीव चतुर्वेदी

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