महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...वैशम्पायनजी ने कहा- राजा
तुमने जो प्रश्न किया है वह बिल्कुल सही है। मैं इसका यार्थाथ कारण बताता
हूं सुनो। भीमसेन ने गदायुद्ध के नियम का उल्लंघन करके दुर्योधन को मारा यह
देखकर महाराज युधिष्ठिर को बड़ा भय हुआ। उन्हें यही लगा कि अपने पुत्र की
अन्याय पूर्वक वध की बात सुनकर कहीं वे अपने मन से अग्रि प्रकट कर हमें
भस्म न कर डालें इसीलिए उन्होंने श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजा अब आगे..
इसके बाद पांडव श्रीकृष्ण के साथ गांधारी के पास आए। पांडवों के प्रति गांधारी के मन में पाप है यह ताड़कर महर्षि व्यास पहले ही ताड़ गए थे। इसलिए वे बड़ी तेजी से वहंा आ पहुंचे। वे दिव्य दृष्टि से अपने मन की एकाग्रता से सभी प्राणियों के आंतरिक भाव समझ लेते थे। इसलिए गांधारी के पास जाकर उससे कहने लगे गांधारी तुम पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पर क्रोध मत करो, शांत हो जाओ। तुम जो बात मुंह से निकालना चाहते हो उसे रोक लो और मेरी बात पर ध्यान दो। पिछले अठारह दिनों में तुम्हारा विजयभिलाषी पुत्र रोज ही तुम से यह प्रार्थना करता था कि मैं शत्रुओं के साथ संग्राम करने के लिए जा रहा हूं। माताजी! मेरे कल्याण के लिए आप मुझे आशीर्वाद दीजिए। उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर तुम हर बार यही कहती थी कि जहां धर्म है, वहीं विजय है।
इस प्रकार पहले तुम्हारे मुंह से जो सच्ची बात निकलती थी, वह मुझे याद आती है।गांधारी ने कहा भगवान पांडवों के प्रति मेरा कोई दुर्भाव नहीं है और मैं इनका नाश ही चाहती हूं।लेकिन पुत्रशोक के कारण मेरा मन जबरदस्ती व्याकुल सा हो रहा है। इन कुंतीपुत्रों की रक्षा करना जैसा कुंती क ा कर्तव्य है वैसे ही महाराज का भी और मेरा भी। कौरवों ने अभिमानी बनकर युद्ध किया। लेकिन साहसी भीम ने दुर्योधन को गदायुद्ध के लिए बुलाकर फिर कृष्ण के सामने ही उसकी नाभि के नीचे गदा पर चोट की इस अनुचित कार्य ने मेरा क्रोध भड़का दिया। गांधारी की यह बात सुनकर भीमसेन ने बहुत डरते-डरते उससे विनयपूर्वक कहा माताजी यह धर्म हो अथवा अधर्म मैंने तो डरकर अपनी रक्षा के लिए ही ऐसा किया था सो अब आप क्षमा करें।
इसके बाद पांडव श्रीकृष्ण के साथ गांधारी के पास आए। पांडवों के प्रति गांधारी के मन में पाप है यह ताड़कर महर्षि व्यास पहले ही ताड़ गए थे। इसलिए वे बड़ी तेजी से वहंा आ पहुंचे। वे दिव्य दृष्टि से अपने मन की एकाग्रता से सभी प्राणियों के आंतरिक भाव समझ लेते थे। इसलिए गांधारी के पास जाकर उससे कहने लगे गांधारी तुम पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पर क्रोध मत करो, शांत हो जाओ। तुम जो बात मुंह से निकालना चाहते हो उसे रोक लो और मेरी बात पर ध्यान दो। पिछले अठारह दिनों में तुम्हारा विजयभिलाषी पुत्र रोज ही तुम से यह प्रार्थना करता था कि मैं शत्रुओं के साथ संग्राम करने के लिए जा रहा हूं। माताजी! मेरे कल्याण के लिए आप मुझे आशीर्वाद दीजिए। उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर तुम हर बार यही कहती थी कि जहां धर्म है, वहीं विजय है।
इस प्रकार पहले तुम्हारे मुंह से जो सच्ची बात निकलती थी, वह मुझे याद आती है।गांधारी ने कहा भगवान पांडवों के प्रति मेरा कोई दुर्भाव नहीं है और मैं इनका नाश ही चाहती हूं।लेकिन पुत्रशोक के कारण मेरा मन जबरदस्ती व्याकुल सा हो रहा है। इन कुंतीपुत्रों की रक्षा करना जैसा कुंती क ा कर्तव्य है वैसे ही महाराज का भी और मेरा भी। कौरवों ने अभिमानी बनकर युद्ध किया। लेकिन साहसी भीम ने दुर्योधन को गदायुद्ध के लिए बुलाकर फिर कृष्ण के सामने ही उसकी नाभि के नीचे गदा पर चोट की इस अनुचित कार्य ने मेरा क्रोध भड़का दिया। गांधारी की यह बात सुनकर भीमसेन ने बहुत डरते-डरते उससे विनयपूर्वक कहा माताजी यह धर्म हो अथवा अधर्म मैंने तो डरकर अपनी रक्षा के लिए ही ऐसा किया था सो अब आप क्षमा करें।
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