नई दिल्ली. करीब दो साल बाद अपना
लगातार दूसरा कार्यकाल पूरा कर रहा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए)
भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों के चलते कटघरे में है। केंद्रीय कैबिनेट
के सदस्यों के साथ-साथ गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के शीर्ष
नेताओं पर भी तरह-तरह के आरोप लगे हैं। महंगाई सुरसा के मुंह की तरह लगातार
बढ़ रही है। इन घोटालों और महंगाई से त्रस्त देश का एक बड़ा तबका विपक्षी
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की ओर देख रहा है।
लेकिन क्या एनडीए का अपना घर ठीक है? इसका
कुनबा लगातार बिखरता जा रहा है। वैसे इसकी शुरुआत तो वर्ष 2004 में उसी
समय हो गई थी, जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थोड़े से अंतर से सरकार से
बाहर हो गई थी। आज यह बिखराव चरम पर पहुंच गया है। सरकार से बाहर होने के
बाद से एनडीए को नए सहयोगी दल नहीं मिले, पुरानी सहयोगी पार्टियां भी एक-एक
करके साथ छोड़ती गईं।
आज एनडीए के बचे हुए घटक दलों के नेता भी आपसी विरोधाभासों में इतने
उलझे हुए हैं कि गठबंधन का अस्तित्व ही खतरे में नजर आ रहा है। एनडीए में
प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा, यही स्पष्ट नहीं है। गठबंधन धर्म से
ज्यादा महत्वपूर्ण नेताओं के व्यक्तिगत अहं हो गए हैं। गठबंधन में नीतियों
को लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं है। गठबंधन में रहते हुए भी सहयोगी पार्टियां
खुलेआम एक-दूसरे से चुनावी मुकाबला करने की धमकियां दे रही हैं। हाल ही
में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे यह आशंका पैदा हो रही है कि वर्ष 2014
में होने वाले आम चुनाव से पहले ही एनडीए कहीं पूरी तरह खत्म न हो जाए।
सहयोगी दलों से ज्यादा खुद भारतीय जनता पार्टी ही सबसे ज्यादा परेशान है,
क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी के पृष्ठभूमि में जाने के बाद पार्टी के पास
ऐसा कोई नेता नहीं है, जो सबको मान्य हो।
एनडीए के मौजूदा घटक दल
भारतीय जनता पार्टी, जनता दल यूनाइटेड, शिव सेना, तेलंगाना राष्ट्र
समिति, शिरोमणि अकाली दल, असम गण परिषद, नगालैंड पीपुल्स फ्रंट, उत्तराखंड
क्रांति दल, ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन, महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी,
हरियाणा जनहित कांग्रेस।
1998में पहली बार एनडीए की सरकार बनी, लेकिन अन्नाद्रमुक द्वारा समर्थन वापस लेने के चलते करीब एक साल बाद ही गिर गई।
अपनी-अपनी ढपली..सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की बात हो
या पीएम पद की दावेदारी, एनडीए के नेताओं के अलग-अलग बयान मीडिया की
सुर्खियां बनते रहते हैं।
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