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06 अगस्त 2012

कृष्ण जन्माष्ठमी

भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन, रोहिणी नक्षत्र में अर्द्धरात्रि 12 बजे मथुरा नगरी के कारागार में वासुदेव जी की पत्नी देवकी के गर्भ से 16कला सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ। पूर्ण पुरूषोत्तम विश्वम्भर प्रभु श्रीकृष्ण का भाद्रपद मास के अंधकारमय पक्ष की अष्टमी तिथि को अर्द्धरात्रि के समय प्रादुर्भाव होना निराशा में आशा का संचारस्वरूप है। अर्द्धरात्रि में जबकि अज्ञानरूपी अंधकार का विनाश और ज्ञानरूपी चन्द्रमा का उदय हो रहा था, उस समय देवरूपी देवकी के गर्भ से सबके अन्त:करण में विराजमान श्रीकृष्ण ऎसे प्रकट हुए जैसे कि पूर्व दिशा में पूर्ण चन्द्र उदय हुआ हो। लग्न पर शुभ ग्रहों की दृष्टि, अष्टमी तिथि तथा रोहिणी नक्षत्र जब प़डे तो वह जयन्ती नामक योग बनाती है। जयन्ती योग मानों बना ही इस अवतार के लिए हो। ऎसे श्रीकृष्ण का जन्म यूं ही नहीं हो गया अपितु इसके पीछे भी उनका देवकी एवं वासुदेव को पूर्वजन्म में दिया गया एक वरदान था। भक्तवत्सल श्रीकृष्ण अपने भक्तों पर दया करते रहते हैं और अपना सर्वस्व तक भक्तों की भक्ति पर लुटा देने वाले हैं। अपने पूर्वजन्म में वासुदेव श्रेष्ठ प्रजापति कश्यप थे तथा उनकी पत्नी सुतपा माता अदिति। प्रजापति कश्यप तथा अदिति ने श्रीकृष्ण की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कृष्ण ने उनसे वरदान मांगने को कहा—कश्यप ने वरदानस्वरूप उनके जैसा पुत्र मांगा और श्रीकृष्ण ने उनको यह वरदान दे भी दिया। इस वरदान को देकर श्रीकृष्ण यह सोचने पर विवश हो गए कि इस त्रिभुवन में मेरे समान दूसरा कोई है ही नहीं तो मैं अपनी यह बात पूरी कैसे करूंगा। इसलिए श्रीकृष्ण ने अपने दिए गए वरदान की रक्षा के लिए प्रजापति के अगले जन्म में उनके घर में पुत्र के रूप में जन्म लिया। देवमाता अदिति, देवकी थीं तथा प्रजापति कश्यप वासुदेव।
चंद्रवंश में श्रीकृष्ण के जन्म की एक अन्य कथा भी प्रसिद्ध है। त्रेता युग में भगवान श्रीराम के सूर्यवंश में जन्म लेने के कारण सूर्यदेव अस्त ही नहीं होते थे। इससे चंद्रमा बहुत दुखी हुए और उन्होंने श्रीराम से अपनी व्यथा कही। श्रीराम ने उन्हें यह आश्वासन दिया कि इस जन्म में तो मेरे नाम के साथ तुम्हारा नाम जु़डेगा(जिसके फलस्वरूप भगवान राम श्री रामचन्द्र कहलाये) और अगले जन्म में मैं तुम्हारे ही वंश में जन्म लूंगा और अवतार स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ।
श्रीकृष्ण के मुकुट के मोरपंख के साथ ही उसमें चंद्रमा भी शोभायमान हैं। मथुरा नरेश उग्रसेन के पुत्र कंस जब अपनी बहिन देवकी को ससुराल पहुंचाने जा रहे थे उस समय एक आकाशवाणी ने कंस को भयभीत कर दिया। वह आकाशवाणी थी, ""जिस बहिन को तुम इतने प्यार से पहुंचाने जा रहे हो उसी के आठवें पुत्र द्वारा तुम मारे जाओगे।"" इसको सुनकर कंस ने अपनी बहिन को मारना चाहा परन्तु देवकी के पति वासुदेव ने कंस से देवकी की सभी संतानों को उसे देने के वचन स्वरूप देवकी की जान बचा ली गई। संतान होती और सत्यभीरू वासुदेव उसे कंस को सौंप देते। कंस शिशु को शिला पर पटककर मार देता। छह शिशु मारे गए, सातवें शिशु के रूप में गर्भ में शेषनाग पधारे। योग माया ने उन्हें आकर्षित करके गोकुल में रोहिणी जी के गर्भ में पहुंचा दिया, जो बलराम हुए। अष्टम गर्भ में भगवान श्रीकृष्ण आए। धरती पर असुरों के अत्याचार बढ़ रहे थे तथा आराधक किसी अवतार की प्रतीक्षा में थे। तब श्रीकृष्ण ने अवतार लिया और धरा को इस आतंक से मुक्ति दिलाने की सभी क्रियाएं कीं। कृष्ण की लीलाएं- कभी बाललीलाएं रिझातीं तो कभी गोपियों को खिझातीं, कभी माखन चोरी होती और उस चोरी पर झूठ का आवरण "मैय्या मोरी मैं नहीं माखन खायो" कहकर चढ़ाया जाता। युवा श्रीकृष्ण गोपियों के साथ रास रचाते साथ ही राधा के साथ अठखेलियां करते और उसके वस्त्रों को छिपा लेते। राधा की भक्ति से प्रसन्न हो, स्वयं को उसका मानकर उसे खुद से पहले पूजे जाने का वरदान देना कृष्ण का यह रूप राधा के आध्यात्मिक स्वरूप को बताता है। राधाजी भगवान श्री कृष्ण की परम प्रिया हैं तथा उनकी अभिन्न मूर्ति भी।
श्रीमद्देवी भागवत में कहा गया है कि श्री राधा जी की पूजा नहीं की जाए तो मनुष्य श्री कृष्ण की पूजा का अधिकार भी नहीं रखता। राधा जी भगवान श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं, अत: भगवान इनके अधीन रहते हैं। राधाजी का एक नाम कृष्णवल्लभा भी है क्योंकि वे श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने वाली हैं। माता यशोदा ने एक बार राधाजी से उनके नाम की व्युत्पत्ति के विषय में पूछा। राधाजी ने उन्हें बताया कि च्राज् शब्द तो महाविष्णु हैं और च्धाज् विश्व के प्राणियों और लोकों में मातृवाचक धाय हैं। अत: पूर्वकाल में श्री हरि ने उनका नाम राधा रखा।
भगवान श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं—द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुज रूप में वे बैकुंठ में देवी लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी के साथ वास करते हैं परन्तु द्विभुज रूप में वे गौलोक धाम में राधाजी के साथ वास करते हैं। राधा-कृष्ण का प्रेम इतना गहरा था कि एक को कष्ट होता तो उसकी पी़डा दूसरे को अनुभव होती। सूर्योपराग के समय श्रीकृष्ण, रूक्मिणी आदि रानियां वृन्दावनवासी आदि सभी कुरूक्षेत्र में उपस्थित हुए। रूक्मिणी जी ने राधा जी का स्वागत सत्कार किया। जब रूक्मिणी जी श्रीकृष्ण के पैर दबा रही थीं तो उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में छाले हैं। बहुत अनुनय-विनय के बाद श्रीकृष्ण ने बताया कि उनके चरण-कमल राधाजी के ह्वदय में विराजते हैं। रूक्मिणी जी ने राधा जी को पीने के लिए अधिक गर्म दूध दे दिया था, जिसके कारण श्रीकृष्ण के पैरों में फफोले प़ड गए। राधा जी श्रीकृष्ण का अभिन्न भाग हैं। इस तथ्य को इस कथा से समझा जा सकता है कि वृदावन में श्रीकृष्ण को जब दिव्य आनंद की अनुभूति हुई तब वह दिव्यानंद ही साकार होकर बालिका के रूप में प्रकट हुआ और श्रीकृष्ण की यह प्राणशक्ति ही राधा जी हैं।
राधाजी का श्रीकृष्ण के लिए प्रेम नि:स्वार्थ था तथा उसके लिए वे किसी भी तरह का त्याग करने को तैयार थीं। एक बार श्रीकृष्ण ने बीमार होने का स्वांग रचा। सभी वैद्य एवं हकीम उनके उपचार में लगे रहे परन्तु श्रीकृष्ण की बीमारी ठीक नहीं हुई। वैद्यों के द्वारा पूछे जाने पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि मेरे परम प्रिय की चरण धूलि ही मेरी बीमारी को ठीक कर सकती है। रूक्मणि आदि रानियों ने अपने प्रिय को चरण धूलि देकर पाप का भागी बनने से इंकार कर दिया अंतत: राधा जी को यह बात कही गई तो उन्होंने यह कहकर अपनी चरण धूलि दी कि भले ही मुझे 100 नरकों का पाप भोगना प़डे तो भी मैं अपने प्रिय के स्वास्थ्य लाभ के लिए चरण धूलि अवश्य दूंगी।
कृष्ण जी का राधा से इतना प्रेम था कि कमल के फूल में राधा जी की छवि की कल्पना मात्र से वो मूçच्üछत हो गये तभी तो विद्ववत जनों ने कहा राधा तू ब़डभागिनी, कौन पुण्य तुम कीन। तीन लोक तारन तरन सो तोरे आधीन।। दार्शनिक श्रीकृष्ण अर्जुन को महाभारत के समय उपदेश देते हैं, बंधु-बांधवों का मोह छो़डने की आज्ञा देते हैं तथा कर्म को सर्वस्व मानकर परिणाम को छो़डने की नीति देते हैं और युद्ध में अपनी कूटनीतियों से सत्य को विजय दिलाते हैं।

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