नई दिल्ली स्थित केंद्रीय आयुर्वेद विज्ञान अनुसंधान परिषद (सीसीआरएएस) ने देश के सभी 32 केंद्रीय आयुर्वेद रिसर्च सेंटरों के डायरेक्टर्स और आयुर्वेद कॉलेजों को पत्र लिखा है। इसमें उन्हें आगाह किया गया है कि अष्ट वर्ग (आठ औषधियों का समूह) की सात औषधियों समेत कुल 32 औषधियां विलुप्तप्राय हैं। जिन इलाकों में पहले यह पर्याप्त मात्रा में मिलती थीं वहां भारी दोहन और रखरखाव के अभाव में ये विलुप्तप्राय स्थिति में पहुंच गई हैं।
च्यवनप्राश में लगती हैं 54 औषधियां
च्यवनप्राश बनाने में अष्ट वर्ग के साथ अग्नि मंथ, ब्रिहाती, करकट संगी, मांस पर्णी सहित करीब 54 प्रकार की औषधियां प्रयोग में लाई जाती हैं। अष्ट वर्ग शरीर को स्वस्थ रखने में सहायक होता है। अष्ट वर्ग आठ हिमालयन औषधियों रिद्धि, वृद्धि, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, छीरकाकोली से मिलकर बनता है।
ये औषधियां जो नहीं मिल रहीं
अग्निमंथ (दो प्रकार), ब्रिहाती, भारंगी, चव्य, दारूहरिद्रा (तीन प्रकार), गजपीपली, गोजीहवा, ऋषभक, जीवक, काकोली (दो प्रकार), क्षीरकाकोली, करकटसरंगी, ममीरा, मासपर्णी, मेदा, मुदगापर्णी, परपाटा, दक्षिणी परपाटा, प्रसारणी, प्रतिविषा, रेवाटेसिनी, रिद्धि, सलामपंजा, सप्तारंगी, रोजा सेंटीफोलिया, उसवा व विधारा प्रमुख हैं।
अष्ट वर्ग दूर रखता है बुढ़ापा
‘च्यवनप्राश में प्रयुक्त होने वाला अष्ट वर्ग हिमालयन प्लांट का एक समूह है। अष्ट वर्ग मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करने के साथ रक्त संचार और श्वसन तंत्र को व्यवस्थित करता है। इसके सभी अवयव शक्तिवर्धक हैं। यह बुढ़ापे को दूर रखता है। इसके लगातार सेवन से बुढ़ापा लंबी उम्र तक नहीं छू पाता।’
-डॉ. रामकुमार पाराशर, सेवानिवृत्त प्राध्यापक, शा. आयुर्वेद कॉलेज ग्वालियर
विकल्प खोजने की कोशिश
अष्ट वर्ग की औषधियां विलुप्तप्राय हैं। इन दवाइयों के विकल्प का प्रयोग हो रहा है। जिन दवाइयों के विकल्प नहीं हैं उन्हें खोजने के प्रयास किए जा रहे हैं।
-डॉ. एमडी गुप्ता, प्रभारी अधिकारी राष्ट्रीय आयुर्वेद एवं सिद्ध मानव संसाधन विकास अनुसंधान संस्थान, ग्वालियर
विकल्प पर भी संकट
यह सही है कि च्यवनप्राश का प्रमुख अंग अष्ट वर्ग अब नहीं मिल पा रहा है। अष्ट वर्ग के विकल्प के रूप में सिदारीकल का उपयोग च्यवनप्राश कंपनियां कर रही हैं, लेकिन यह इसका पूर्ण विकल्प नहीं है। सिदारीकल मप्र के अमरकंटक के ढालों और सागर के आसपास के क्षेत्र में खूब पाया जाता था। भारी दोहन के कारण यह भी अब दुर्लभ स्थिति में पहुंचता जा रहा है।
- डॉ.ओपी मिश्रा, पूर्व डिप्टी डायरेक्टर, सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन आयुर्वेदिक साइंसेज, नई दिल्ली
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