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11 मई 2012

मोहब्बत के लिए 36 वर्ष पानी में रहकर की तपस्या


पानीपत.हजरत शाह शैफुद्दीन बू अलीशाह कलंदर की सुगंध उनके देह छोड़ने के 750 वर्ष बाद भी पानीपत को महका रही है। दोस्ती और प्यार की प्रतीक इस दरगाह में हजरत अलीशाह कलंदर और उनके शिष्य हजरत मुबारिक अली शाह की मजारें हैं।

सूफियाना संगीत से गुंजायमान होने वाली बाबा कलंदर की दरगाह आज भी अकीदतमंदों के लिए आस्था और विश्वास का केंद्र है। कहा जाता है कि यहां पहुंचने वाले हर अकीदतमंद की मुराद बाबा का सजदा करने पर पूरी होती है। दरगाह की प्रसिद्धि इतनी है कि देश-विदेश से यहां लोग अर्जी लगाने के लिए आते हैं।

पानीपत शहर की तंग गलियों से गुजरते हुए कलंदर चौक पहुंचते ही बू अलीशाह का दर आ जाता है। हर गुरुवार को यहां अकीदतमंद श्रद्धा और विश्वास की चादर चढ़ाने के लिए पहुंचते हैं और बाबा के चरणों में सजदा कर उनका आशीर्वाद पाते हैं।

कैसे बनी दोस्ती की प्रतीक

सुलतान ग्यासुद्दीन के पुत्र शहजादा मुबारिक खां हजरत कलंदर के शिष्य बने। उन्हें मुबारिक खां से इतना प्रेम था कि वे उन्हें क्षणमात्र भी खुद से अलग नहीं होने देते थे। मुबारिक खां का बाल्यावस्था में ही अल्लाह की बंदगी में मन लग गया था और वे हजरत कलंदर की सेवा से लाभान्वित होने लगे।

मुबारिक खां की योग्यताओं से बाबा कलंदर बहुत प्रभावित हुए। एक दिन सुल्तान अलाउद्दीन शिकार खेलते हुए पानीपत आए। यहां वे हजरत कलंदर की सेवा में भी गए। उन्हें देखकर हजरत कलंदर ने कहा कि ठीक समय पर आए हो अलाउद्दीन, हमारे लिए एक छतरी और गुंबद का निर्माण कराओ। इसे अलाउद्दीन ने अपना सौभाग्य समझा।

इसके बाद अलाउद्दीन ने कई किस्म के भोजन हजरत कलंदर की सेवा में प्रस्तुत किए। इनमें से एक बोटी चूसकर हजरत साहब ने अपने प्रिय शिष्य मुबारिक खां को कुएं में डालने को दी, जिसे प्रसाद समझकर उन्होंने स्वयं खा लिया। बोटी खाते ही मुबारिक खां व्याकुल हो गए और कुछ देर बाद उनकी मौत हो गई। इसकी सूचना जब हजरत कलंदर को हुई तो एकाएक उनके मुंह से निकला- इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन।

इसके बाद उन्होंने मुबारिक अलीशाह की लाश मंगाकर कहा कि ऐ दोस्त! वज्म-ए-यार में जाना तुझे मुबारक हो।ञ्ज हजरत कलंदर ने जो छतरी और गुंबद अलाउद्दीन से बनवाया था, उसी के अंदर ही में हजरत मुबारिक खां को दफन किया गया। लोगों का मानना है कि हजरत कलंदर ने कहा था जो कोई भी अकीदतमंद मेरे मजार पर आए, वह पहले मुबारिक खां की मजार पर जाकर हाजिरी दे। तब से हर कोई सबसे पहले मुबारिक अली शाह की मजार पर हाजिरी देता है। कहा जाता है कि बू अलीशाह कलंदर ने पानी के अंदर ३६ साल तक तपस्या की थी।

विश्व में हैं ढाई कलंदर

विश्व में अब तक केवल ढाई कलंदर ही हुए हैं। इनमें से पहले हरियाणा के पानीपत शहर में हजरत शाह शैफुद्दीन बू अलीशाह कलंदर के नाम से जाने जाते हैं।

दूसरे कलंदर पीर पाकिस्तान में शकील लाल शाहबाज कलंदर, सेवन शरीह सिंध हुए और आधी कलंदर एक महिला हुईं। इनका नाम राबिया बसरी है। इनकी मजार इराक के बसरा नामक स्थान पर मौजूद है।

कसौटी का पत्थर भी है यहां

हजरत कलंदर की इस दरगाह पर कसौटी के पत्थर लगे हुए हैं। इसके अलावा कसौटी का यह पत्थर वैतूल मुकद्द में लगा है। इस पत्थर की धार्मिक आस्था यह है कि यह पत्थर लोगों की इच्छाओं को कसौटी पर परखता है।

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