इंसान को बेदार तो हो लेने दो - हर क़ौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन
अत्याचार के विरुद्ध इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के संघर्ष में आशूरा की घटना उस गगन चुंबी चोटी की भांति है जिसके चलते घाटियां मानो दिखाई ही नहीं देतीं। इमाम हुसैन का आन्दोलन, इस्लाम की शिक्षाओं से प्रवाहित होने वाली ऐसी संस्कृति है जो इस्लाम का जीवन जारी रहने में निर्णायक भूमिका रखती है। दस मुहर्रम वर्ष 61 हिजरी क़मरी को कर्बला की धरती पर एक ऐसी शौर्य गाथा लिखी गई जिसके पाठ, सत्यप्रेमियों और सत्य की खोज में रहने वालों के मार्ग की मशाल बन गए।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के नाती थे और सभी अच्छे गुण उनके पावन अस्तित्व में एकत्रित हो गए थे। वे केवल एक व्यक्ति नहीं थे बल्कि एक ऐसे मनुष्य थे जिनका प्रभाव पूरे मानव इतिहास पर है। उन्होंने ईश्वरीय ग्रंथ क़ुरआने मजीद की आयतों से पाठ लेकर और अपने नाना हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के चरित्र को व्यवहारिक बना कर इस्लामी समुदाय में दूरदर्शिता व शौर्य की आत्मा फूंक दी। उनका आन्दोलन, संसार के सभी आन्दोलनों और क्रांतियों के लिए अद्वितीय पाठ व संपत्ति बन गया।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सिखाया कि भय, हीन भावना, चापलूसी और इसी प्रकार के दूसरे अवगुण अपनी पवित्र प्रवृत्ति से मनुष्य के दूर हो जाने का परिणाम हैं। आशूरा के दिन इमाम हुसैन एक असमान युद्ध में, यज़ीद के सिर से पैर तक सशस्त्र सैनिकों से मुक़ाबले के लिए उठ खड़े हुए और कर्बला को प्रेम व स्वतंत्रता के मंच में परिवर्तित कर दिया। कर्बला की ऐतिहासिक शौर्यगाथा लिखने वाले वे महिलाएं और पुरुष थे जिन्होंने ईश्वर के मार्ग में शहादत को, अपमानजनक जीवन पर प्राथमिकता दी थी ताकि स्वतंत्रता और स्वतंत्रताप्रेम जैसे शब्द इतिहास में सदैव जीवित व प्रकाशमान रहें।
आशूरा प्रेम और त्याग के मार्ग को रेखांकित करती है। इमाम ख़ुमैनी के शब्दों में आशूरा के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, जैसे जैसे शहादत के निकट होते जा रहे थे, उनके तेज में वृद्धि होती जा रही थी। इमाम हुसैन के युवा, रणक्षेत्र में जाने के लिए एक दूसरे से आगे बढ़ने के प्रयास में थे जबकि सभी जानते थे कि कुछ ही देर बाद इस युद्ध में उन्हें शहीद हो जाना है, महत्वपूर्ण बिंदु यह था कि वे अपने दायित्व का निर्वाह करें और अपने प्राणों की आहूति देकर इस्लाम को अमर कर जाएं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथी संख्या में कम थे किंतु वे साहसी भी थे, ईमान वाले भी थे और विचारक एवं ईश्वर की सच्ची पहचान रखने वाले भी थे। उस छोटे से गुट में जो ईमान प्रकाशमान था, वह कमज़ोर ईमान वालों के बड़े समूह को भी ललकार रहा था। इमाम हुसैन के साथियों में से एक हज्जाज जोअफ़ी थे। वे कर्बला की पूरी यात्रा में मोअज़्ज़िन थे अर्थात नमाज़ के समय अज़ान दिया करते थे। वे अपनी अज़ान की आवाज़ से इमाम हुसैन के साथियों के हृदयों को शांति प्रदान करते थे। आशूरा के दिन हज्जाज इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पास आए और उनसे रणक्षेत्र में जाने की अनुमति मांगी। इसके बाद वे मैदान में पहुंचे और बड़े साहस के साथ युद्ध किया और ख़ून में डूबे हुए वापस लौटे। उन्होंने इमाम हुसैन से कहा कि हे लोगों के मार्गदर्शक! मेरे प्राण आप पर न्योछावर। मैं आज आपके नाना पैग़म्बरे इस्लाम से भेंट करूंगा, आज मेरी भेंट आपके पिता हज़रत अली से होगी। हे मेरे क्या मैं आपको प्रसन्न करने में सफल हो सका? इमाम ने बड़े प्रेम से उन पर दृष्टिपात किया और कहा कि हां, ऐसा ही है। मैं भी तुम्हारे पश्चात उन लोगों से भेंट करूंगा। हज्जाज फिर से रणक्षेत्र को लौट गए और अपनी शहादत तक असाधारण साहस और रणकौशल का प्रदर्शन करके शत्रु पर आक्रमण करते रहे।
मानव इतिहास में सत्य और असत्य के बीच सदैव ही संघर्ष रहा है। ईश्वर के पैग़म्बर और उसके प्रिय बंदे, एकेश्वरवाद तथा सत्य के प्रचारक रहे हैं। उन्होंने ईश्वर की पहचान और उसकी उपासना को, मनुष्य के कल्याण व मोक्ष तथा परिपूर्णता उसकी पहुंच का मार्ग बताया है। कर्बला की घटना और आशूरा के आन्दोलन में एकेश्वरवाद व ईश्वर की उपासना की आत्मा अपने सबसे सुंदर रूप में प्रकट हुई थी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने एक भाषण में सत्य के मार्ग से समाज के विचलित हो जाने की ओर संकेत करते हुए कहा कि क्या तुम लोग नहीं देख रहे हो कि ईश्वर की उपासना को छोड़ दिया गया है, सत्य का पालन नहीं किया जा रहा है और असत्य से मुंह नहीं मोड़ा जा रहा है?
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आन्दोलन केवल ईश्वर के लिए और उसी के मार्ग में था। उनके आन्दोलन में भौतिक उद्देश्यों का कोई हस्तक्षेप नहीं था। उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा था कि तुम लोग जानते हो कि यज़ीद और उसके सिपाही, शैतान का अनुसरण कर रहे हैं और ईश्वर के आज्ञापालन से मुंह मोड़ चुके हैं। इन्होंने धरती में बुराई का प्रसार किया है तथा ईश्वरीय आदेशों की अनदेखी कर दी है। ये लोग जनकोष को अपने हितों के लिए प्रयोग कर रहे हैं। इन्होंने ईश्वर द्वारा वर्जित की गई बातों को वैध तथा वैध बातों को वर्जित कर दिया है। इनके विरोध के लिए मुझ से उपयुक्त कोई और नहीं है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इस्लामी समुदाय में फैली बुराइयों को दूर करने के लिए हर संभव प्रयास किया और जब उन्होंने यह देखा कि सुधार के प्रयास और वार्ता की रणनीति प्रभावी नहीं है तो उन्होंने इस्लाम की रक्षा या अपनी जान की रक्षा जैसे दो विकल्पों में धर्म की रक्षा को प्राथमिकता दी। इसके अंतर्गत उन्होंने बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंकने के प्रयास आरंभ किए और शासन के अत्याचारों पर कड़ी आपत्तियां करनी आरंभ कर दीं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने नाना पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को उद्धरित करते हुए कहते थे कि तुम लोगों में से जो कोई, किसी ऐसे अत्याचारी शासन को देखे जो ईश्वरीय परंपराओं का विरोध करता हो और ईश्वर के बंदों के साथ पाप और शत्रुता का व्यवहार करता हो, तो यदि वह व्यक्ति उस पर आपत्ति न करे या उसे अपनी कथनी और करनी से न रोके तो ईश्वर उसे उसी स्थान पर रखेगा जिस स्थान पर उस अत्याचारी शासक को रखा जाएगा।
आशूरा, वफ़ादारी और प्रतिज्ञा व वचन के पालन का मत है। आशूरा से पहले वाली रात को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने साथियों से कहा कि यदि वे जीवित रहना चाहते हैं तो मोर्चे से वापस जा सकते हैं और उन्होंने इमाम का साथ देने का जो वचन दिया था उसे वे अपनी ओर से समाप्त कर देते हैं किंतु उनके निष्ठावान साथियों ने एक आवाज़ होकर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से की गई प्रतिज्ञा पर कटिबद्ध रहने पर बल दिया और कहा कि यदि उन्हें सौ बार शहीद कर दिया जाए, उनके शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाए, उनके शरीर को आग लगा दी जाए और फिर उन्हें पुनः जीवित किया जाए तो फिर भी उनका साथ देंगे क्योंकि वे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र और मुसलमानों के इमाम अर्थात वास्तविक नेता हैं। वे तब तक अपने इमाम का साथ देते रहेंगे जब तक शहीद न हो जाएं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने ईश्वरीय कर्तव्य के आधार पर लोगों को धर्म की रक्षा के लिए आमंत्रित किया। आशूरा के दिन जब भी उनका कोई साथी या परिजन, रणक्षेत्र में जाने की अनुमति मांगता तो वे क़ुरआने मजीद के सूरए अहज़ाब की तेईसवीं आयत की तिलावत करते थे जिसमें कहा गया है कि ईमान वालों के बीच ऐसे पुरुष भी हैं जो ईश्वर से की गई अपनी प्रतिज्ञा पर डटे हुए हैं। कुछ ने अपनी प्रतिज्ञा को अंत तक पहुंचा दिया अर्थात शहीद हो गए और कुछ प्रतीक्षा में हैं और उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा में कदापि कोई परिवर्तन नहीं किया है।
दूसरों का दास बनना मनुष्य के लिए अपमान और तुच्छता का कारण है। इस प्रकार के अपमान की ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर ने निंदा की है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम इस संबंध में कहते हैं कि जो अपनी इच्छा से अपमान को सहन करे और हमारे परिवार से नहीं है। क्योंकि ईश्वर चाहता है कि मनुष्य स्वतंत्र एवं प्रतिष्ठित रहे। ईश्वर साम्राज्यवादियों और विस्तारवादियों के समक्ष मनुष्य की दासता व अपमान को कभी भी स्वीकार नहीं करता। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने एक स्थान पर कहा था कि हे लोगो! जान लो कि इब्ने ज़ियाद ने मुझे दो बातों में से एक के चयन पर विवश किया है। मृत्यु या अपमान के साथ यज़ीद के आज्ञापालन की प्रतिज्ञा और अपमान एवं तुच्छता हम पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से दूर है। न ईश्वर हमारे लिए इस अपमान को स्वीकार करता है, न ही उसका पैग़म्बर, न ईमान वाले और न ही पवित्र प्रवृत्ति के लोग हमारे लिए इस तुच्छता को स्वीकार करते हैं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आन्दोलन मानव प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए पूर्ण ज्ञान व बुद्धिमत्ता के साथ अस्तित्व में आया था। यह आन्दोलन मानवीय एवं शिष्टाचारिक मान्यताओं से ओत-प्रोत था। यदि कर्बला की मूल घटना पर दृष्टि डाली जाए और उसके द्वारा अस्तित्व में आने वाले शिष्टाचारिक गुणों पर ध्यान दिया जाए तो हर कोई इमाम हुसैन और उनके साथियों की महानता और पुरुषार्थ की सराहना करने पर विवश हो जाएगा। अमरीका के इतिहासकार वाशिंग्टन इरविंग इस संबंध में कहते हैं। तपते सूरज तले इराक़ की सूखी धरती और जलते मरुस्थल में हुसैन की आत्मा, अमर है, हे महानायक और हे साहस के उच्चतम उदाहरण! तुम ही मेरे आदर्श हो हे हुसैन!
हर वह संदेश जो बुद्धि और तर्क से जुड़ा हुआ हो और मानव प्रवृत्ति के अनुकूल हो, अमर होने की क्षमता रखता है। इस स्थिति में उस संदेश की सत्यता व उसका सौंदर्य मानव आत्मा पर प्रभाव डालता है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आन्दोलन एक ईश्वरीय आन्दोलन है और उसका मूल तत्व ईश्वर से प्रेम है। निश्चित रूप से यह शौर्य गाथा जिसमें अत्याचार से संघर्ष और न्यायप्रेम ठाठें मार रहा है, इतिहास से कभी भी मिट नहीं सकती बल्कि यह सदैव अत्याचारों से संघर्ष के लिए मानवता को प्रेरित करती रहेगी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने पूरे अस्तित्व के साथ अत्याचार से संघर्ष के मैदान में उतरे और उन्होंने कहा कि धैर्यवान वह है जो संसार के भौतिक हितों की अनदेखी करे और कठिनाइयों व संकटों पर धैर्य रखे।
दोपहर ढल चुकी थी और सूरज पर रक्त जैसी लाली छाई हुई थी। पैग़म्बरे इस्लाम के प्राणप्रिय नाती और स्वर्ग के युवाओं के सरदार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ओछी प्रवृत्ति के और दुष्ट शत्रु के घेरे में आ गए थे। उन्होंने शत्रु को अंतिम बार समझाने के लिए अपने छः महीने के अपने पुत्र को गोदी में लिया और उसे लेकर रणक्षेत्र में आए ताकि शत्रु का पत्थर समान हृदय शायद उस नन्हें बालक की प्यास देख कर ही पसीज जाए किंतु शत्रु की ओर से एक सनसनाता हुआ तीर आया और उस छः महीने के बालक की गर्दन को छेद गया। इमाम हुसैन ने अपने नन्हें शिशु के रक्त को चुल्लू में लिया और उसे आकाश की ओर उछालते हुए कहा कि प्रभुवर अपने दास की ओर से इस बलि को स्वीकार कर।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के क्षण ईश्वर से प्रेम से ओत-प्रोत थे। वे इस प्रकार युद्ध कर रहे थे मानो उनके पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपनी पूरी शूरवीरता के साथ रणक्षेत्र में आ गए हों। उन्होंने अपने पिता की भांति ही अपूर्व साहस का परिचय देते हुए अपनी अंतिम नमाज़ तीरों की बौछार में अदा की थी। अचानक ज़रआ इब्ने शरीक नामक दुष्ट ने उनके बाएं हाथ और कंधे पर एक वार किया। इमाम हुसैन घोड़े पर अपना संतुलन बाक़ी न रख सके और असंख्य घावों के साथ घोड़ से धरती पर गिर पड़े किंतु उनक रौब इतना अधिक था कि शत्रु की सेना का कोई भी सिपाही उनके निकट आने का साहस नहीं कर पा रहा था। किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि पैग़म्बरे इस्लाम के नाती का सिर उनके शरीर से अलग करने के लिए आगे बढ़ सके।
अंततः एक अत्यंत निर्दयी व क्रूर व्यक्ति ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सिर पर तलवार मारी। तलवार उनके शिरस्त्राण को काटती हुई सिर तक पहुंच गई और उनके सिर से रक्त बहने लगा। उस क्षण इमाम ने अपने पालनहार से भेंट के उत्साह से भरे हुए स्वर में कहा, प्रभुवर मैं तेरी प्रसन्नता में प्रसन्न और तेरे समक्ष नतमस्तक हूं। यज़ीद के सेनापति उमर इब्ने सअद ने चिल्ला कर अपने सिपाहियों से कहा कि आगे बढ़ो और हुसैन का सिर उनके शरीर से अलग कर दो। शिम्र इब्ने ज़िल जौशन नामक एक अत्यंत निर्दयी आगे बढ़ा और इमाम के निकट पहुंचा। उसने कहा कि ईश्वर की सौगंध मैं जानता हूं कि तुम पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र हो और तुम्हारे माता-पिता इस धरती के सबसे अच्छे लोग थे किंतु मैं तुम्हारा सिर तुम्हारे शरीर से अलग करके ही रहूंगा।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के शहीद होते ही काली आंधी आई, फ़ुरात नदी का पानी कई मीटर ऊपर तक उछलने लगा, धरती को भूकंप के झटके लगने लगे। इसके बाद दुष्ट शत्रुओं ने बर्बरता की सीमा तोड़ते हुए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का सिर काट कर एक भाल की नोक पर लगा दिया किंतु वे वहां से भी सत्य की घोषणा करते रहे। तीन दिन के भूखे प्यासे इमाम के होंटों से संसार मौत के बाद भी क़ुरआने मजीद की तिलावत सुन रही थी। ईश्वर का सलाम हो हुसैन पर, उनके पवित्र परिजनों पर और उनके निष्ठावान साथियों पर।
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