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11 नवंबर 2011

ऐसी हो गृहस्थी तो भगवान को भी झुकना पड़ता है



आज के युवा वर्ग में अक्सर गृहस्थी की शुरुआत आकर्षण से शुरू हो, वासना से गुजरती हुई, अशांति पर आकर ठहर जाती है। लोग गृहस्थी को एक समझौता या दैहिक आवश्यकता मानकर रह जाते हैं। इसलिए कई बार ऐसा भी होता है कि शादी एक बंधन और गृहस्थी एक कैद सी महसूस होने लगती है।

हम चूक जाते हैं इस रिश्ते के रचनात्मक निर्माण में। अक्सर विवाह दैहिक होकर ही रह जाता है। उसमें वो दिव्यता नहीं आ पाती जो हमें परमात्मा की राह पर ले जाए। रामायण के एक प्रसंग में अत्रि ऋषि और अनुसुईया के दाम्पत्य में चलते हैं। अत्रि ऋषि और अनुसुईया दोनों पति-पत्नी होने के साथ ही बड़े तपस्वी भी थे।

उनके तप में इतना बल था कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवताओं को उनके आगे नतमस्तक होना पड़ा। उनके रिश्ते में इतनी दिव्यता थी कि शरीर का भाव जाता रहा। एक बार तीनों देवताओं ने उनकी परीक्षा लेने की ठानी। तीनों साधु का वेश बनाकर भिक्षा मांगने आ गए। अनुसुईया भिक्षा देने आई तो तीनों ने शर्त रख दी कि भिक्षा तभी लेंगे जब अनुसुईया अपने शरीर के ऊपरी वस्त्र निकालकर आए।

यह एक कठिन समय था। कोई और स्त्री होती तो शायद तीनों को अपमानित कर भगा देती लेकिन अनुसुईया ने सोचा कि साधुओं को खाली हाथ लौटाने में अशुभ की आशंका है। पति के साथ कुछ अशुभ ना हो जाए। अनुसुईया ने मन ही मन परमात्मा का ध्यान किया। अपने ईष्ट का स्मरण करते हुए मन ही मन प्रार्थना की अगर मेरा पतिव्रत सच्चा है, मेरी तपस्या में पुण्य है तो ये तीनों साधु तत्काल बालक बन जाएं।

नन्हें अबोध बालकों के सामने इस अवस्था में जाना माता के लिए मुश्किल नहीं था। तीनों देवता, अनुसुईया के इस सतीत्व और पतिव्रत से प्रसन्न हुए। उन्होंने अनुसुईया से इसका रहस्य पूछा तो उसने तीनों देवों को बताया कि हमारे दाम्पत्य का आधार प्रेम और परमात्मा है। हमने आपसी प्रेम को एक डोर में पिरोकर उसे परमशक्ति को समर्पित कर दिया है। इस लिए हमारे दाम्पत्य में इतनी दिव्यता है। हम सिर्फ एक दूसरे से ही प्रेम और विश्वास नहीं रखते, हमने इस प्रेम और विश्वास को परमात्मा से जोड़ दिया है।

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