अनुष्ठानों में मैं सिर्फ पुरोहित की भूमिका में होती हूं। जब वे 20 वर्ष की थीं, तो उनके पिता का निधन हो गया। यानी करीब 50 वर्ष से इलाके में पुरोहित के सारे काम संपन्न कर रही हैं।
हौसले से मिली हिम्मत :
शांतिबाई ने बताया कि उनके पिता बचपन से ही शादी-विवाह तथा अन्य धार्मिक आयोजनों में साथ ले जाते थे। इसी दौरान कर्मकांड की सभी बारीकियां उन्होंने सीखीं। परिवार में तीन बहनें हैं। शादी के बाद दो ससुराल जा बसीं और पिता की जगह वे पुरोहित हो गईं। गांव वालों ने भी उन्हें इस रूप में न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि हमेशा हिम्मत बंधाई।
धर्म-कर्म के हर मामले शांतिबाई के दरवाजे:
शांतिबाई की दिनचर्या भी एक पक्के पुरोहित की है। सुबह से पूजा-पाठ। तीज-त्योहारों पर विशेष अनुष्ठान। गांव वालों के सिर्फ सात फेरे ही नहीं, जन्म कुंडली के मिलान और बच्चों के नामकरण से लेकर गांव में मवेशी गुम होने से जुड़े सवाल लेकर भी गांव के लोग उनका ही दरवाजा खटखटाते हैं। गांव वालों का कहना है कि इनके बिना आज भी गांव में फेरे नहीं होते। हमारे लिए वे एक दक्ष पंडित हैं।
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