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25 अक्तूबर 2011

वो भी एक दिवाली थी जब लाल छतरी में विराजते थे ठाकुरजी और...!

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कोटा.रियासतकाल में दीपावली के दिन शाम 6 बजे टिपटा गढ़ महल स्थित भगवान बृजनाथ जी मंदिर से ठाकुर जी की मूर्ति को बाहर निकाल कर महल में हथिया पोल के ऊपर लाल छतरी में लाया जाता था।

वहां सिंहासन पर ठाकुरजी विराजते थे और कोटा के तत्कालीन शासक महाराव (दरबार) नीचे बिछात पर खड़े होकर उनके दर्शन करते थे।

रियासतकाल में शहरवासियों के बीच लक्ष्मी पूजन का पैटर्न वही था जो आज है। फर्क इतना है कि लक्ष्मी पूजन के बाद मेलमिलाप का व्यापक सिलसिला चलता था। लोग एक दूसरे के घरों-दुकानों पर जाकर दीवाली की राम-राम करते थे। अब लोगों के परिचितों का दायरा बढ़ गया है तो मोबाइल और एसएमएस कल्चर ने घर से बाहर निकलने की परंपरा को संक्षिप्त कर दिया है।

तब सेठ-साहूकार तथा आम दुकानदार अपनी दुकानों, गद्दियों पर सफेद झक्क नई चादर बिछाकर मशंद तकिए लगाकर बैठते थे। लक्ष्मी पूजन के बाद जो भी रास्ते से गुजरता था, उससे ‘दिवाली को राम-राम’ के संवाद के साथ एक-दूसरे की संपन्नता की कामना की जाती थी। अब ज्यादातर लोग अपने घरों में लक्ष्मी पूजन और आतिशबाजी के दायरे तक ही सिमट कर रह जाते हैं।

फौज की पलटन देती थी सलामी

इतिहासकार डॉ. जगत नारायण के मुताबिक रियासतकाल में लक्ष्मी पूजन वाले दिन महल की लाल छतरी में जब ठाकुर जी (भगवान बृजनाथ जी) सिंहासन पर विराजते थे तो नीचे चबूतरे पर दरीखाना भरता था।

दरबार ठाकुरजी के दर्शन करने के बाद दरीखाने में रूबरू होते थे। फौज की पलटन ठाकुर जी को सलामी देती थी। दरीखाने में रियासत के राजपूत सरदार और गणमान्य लोग मौजूद रहते थे। पास ही अखाड़े में जेठी (पहलवानों) की कुश्ती का आयोजन होता था। चौक में खासा घोड़े-हाथी खड़े रहते थे और नक्कारखाने में बैंड बाजा बजता रहता था।

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