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02 अक्तूबर 2011

भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंकवाद से ऐसे निपटते महात्मा गांधी



भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंकवाद... जैसे आज के मुद्दों का महात्मा गांधी के सिद्धांतों में क्या कोई हल है? इसे समझा रहे हैं दो प्रमुख गांधीवादी, दिल्ली से स्वराज पीठ के संस्थापक राजीव वोरा और मुंबई से बापू के पड़पोते व महात्मा गांधी फाउंडेशन के अध्यक्ष तुषार गांधी। मकसद है कि नई पीढ़ी समझ सके बापू के दर्शन को...

2जी घोटाला/भ्रष्‍टाचार
शीर्ष नेतृत्व ध्यान रखे वह चुन किसे रहा है?
आजादी के बाद अकेला महाघोटाला यानी 2जी जिसमें आए दिन हो रहे हैं चौंकाने वाले खुलासे। पूर्व केंद्रीय मंत्री, सांसद, अफसरों और उद्योगपतियों समेत नौ लोग तिहाड़ जेल में हैं। कई शक के दायरे में। मामला सीबीआई की जांच और अदालत में है। भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए गांधीजी के दो सिद्धांत थे-पहला, राजनीति का शीर्ष नेतृत्व देख परखकर नेताओं को आगे लाए, दूसरा-नेता खुद भी ध्यान रखें कि जनता की निगाह से न गिरें।

1937 का वाकया है। नेहरूजी की मर्जी से कुछ लोग पार्टी में आ गए। उनकी छवि अच्छी नहीं थी। छह राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनीं तो भ्रष्टाचार की शिकायतें आईं। बापू ने पंडितजी को चिट्ठी लिखकर कहा कि ये कैसे लोगों को कांग्रेस में ला रहे हो? ये लोग राजनीति में भ्रष्टाचार की विषबेल साबित होंगे। बापू का मानना था कि शीर्ष नेतृत्व का जिम्मा बड़ा है।

उन्हें देखना चाहिए कि वे किसे आगे ला रहे हैं। श्री वोरा बताते हैं, ‘वे सब कुछ बड़े नेताओं पर ही छोडऩा नहीं चाहते थे। वे चाहते थे कि नेता स्वयं अपनी छवि का ध्यान रखें। बापू आजाद भारत में बिल्कुल अलग राजनीतिक ढांचे के हिमायती थे। उनका विचार था कि सबसे पहले कांग्रेस को खत्म करो। अलग राजनीतिक ढांचा खड़ा हो, जिसमें पंचायत से लेकर संसद तक श्रेष्ठतम नुमाइंदे चुनकर जाएं।’


पेट्रोल के बढ़ते दाम/महंगाई
किसी पर आश्रित न रहें, खुद ईंधन बचाएं
बढ़ते-बढ़ते पेट्रोल के दाम 70 रुपए लीटर पार हुए। डेढ़ साल में नौ बार कीमतों में इजाफा हुआ। जरूरी चीजें भी महंगी हुईं। कीमतों पर लगाम नहीं। आम आदमी का जीना मुहाल। देखें, महंगाई के मसले पर बापू क्या सोचते थे? वे खर्चों में किफायत बरतने और संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के महारती थे। यही उनका दर्शन था।

1947 का खाद्यान्न और फल-सब्जियों का संकट इसकी मिसाल है। तब इन चीजों के दाम बढ़ गए थे। बापू ने जोरदार अपील की-‘जिसके घर में थोड़ी सी भी खाली जमीन हो, वह घास, फूल, पत्ती की बजाए साग-भाजी और फल उगाए। अपने लिए जरूरी उपज खुद ले।’ उन्होंने दिल्ली के बिरला हाउस के पीछे गार्डन को खेत में तब्दील कर दिया। नेहरूजी ने भी प्रधानमंत्री आवास में यही किया।

दिल्ली के सरकारी बंगलों में फसलें हरियाने लगीं। बापू परंपरागत साधनों के पक्षधर यूं ही नहीं थे। उनकी फिलासफी के मुताबिक कुछ उपायों पर अमल किया जा सकता है। सौर व पवन ऊर्जा, गोबर गैस, बायोडीजल जैसे ऊर्जा स्त्रोतों को बढ़ावा दें। सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करें। जहां जरूरी हो, साइकलों का इस्तेमाल करें। जहां तक संभव हो, जरूरत की चीजों पर स्थानीय आत्मनिर्भरता हो ताकि परिवहन का बोझ कम हो।

दिल्‍ली हाईकोर्ट ब्‍लास्‍ट/आतंकवाद
दुश्मन को बताएं अहिंसा व सहिष्णुता की भी हद होती है
दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर दो बार विस्फोट। मुंबई समेत कई शहरों में आतंकी हमलों का लंबा सिलसिला। अनगिनत मौतें। संसद व मुंबई हमले गुनहगार अफजल गुरु और आमिर अजमल कसाब फांसी की सजा के बावजूद जेलों में महफूज। हर हमले के बाद सरकार के एक जैसे बयान। कोई कार्रवाई नहीं। अहिंसा के पुजारी बापू इस मसले पर क्या सोचते थे?

उनके तीन सिद्धांत थे-एक, हिंसा के हिमायतियों से संवाद करें, उन्हें समझाकर सही रास्ते पर लाएं। दूसरे, दुश्मन को बताएं कि हमारी अहिंसा और सहिष्णुता की भी सीमा है। तीसरा-जनता का भरोसा हर हाल में कायम रखें। कलकत्ता को याद कीजिए। अगस्त-सितंबर 1947 की बात है। शहर हिंसा की आग में झुलस रहा था। चार दिन में दस हजार लोग मारे गए। बापू ने सरकारी हिफाजत में दूर बैठकर हमदर्दी के बयान जारी नहीं किए। जान की परवाह न कर निहत्थे ही दंगाग्रस्त इलाके में आम लोगों के बीच जा डटे।

तब दिल्ली में स्वाधीनता समारोह की धूम थी। नेहरू और पटेल का एक दूत गांधीजी के पास चिट्ठी लेकर आया। दोनों नेताओं ने बापू को आजादी के जलसे में आशीर्वाद के लिए बुलाया था। बापू नहीं माने। वे तब तक वहां से हिले नहीं, जब तक उग्र पक्षों ने उनके सामने शांति से रहने की सौगंध नहीं ली। बंटवारे के वक्त सिंध और पंजाब के परेशानहाल विस्थापितों ने दिल्ली आकर बापू को सरहद पार अपनी बरबादी की दास्तानें सुनाईं। अङ्क्षहंसा के पुजारी बापू ने तब प्रार्थना सभाओं में पाकिस्तान को स त लहजे में चेताया। कहा कि अहिंसा और सहिष्णुता की हद होती है। इसका ध्यान रखा जाए। राजीव वोरा कहते हैं कि अहिंसा और दया की नीति उनकी कमजोरी नहीं, ताकत थी।

आरक्षण/सामाजिक समता
सिर्फ नौकरियों में आरक्षण समस्या का स्थाई हल नहीं
उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारी है। अचानक मुख्‍यमंत्री मायावती ने मुसलमानों को आरक्षण का लाभ देने की मांग की है। आरक्षण के दायरे में आने के लिए राजस्थान में गुर्जर और जाटों के उग्र आंदोलन हो चुके हैं। क्या इस विषय में बापू के कोई विचार थे, जो आज प्रासंगिक हों? उनके तीन विचार एकदम साफ थे-दलितों का उद्धार जरूरी है, महज फायदे के लिए कोई दलित न कहलाए और आरक्षण तो समस्या का स्थाई हल है ही नहीं।

आरक्षण पर 1932 में कानपुर के स्थानीय चुनाव बापू के दर्शन का बढिय़ा उदाहरण हैं। इसमें सारे सवर्ण उ मीदवार जीते। एक भी दलित नहीं जीत पाया। तब गांधीजी ने स्वामी श्रद्धानंद को लिखे पत्र में कहा कि उन्हें अब डॉ. आंबेडकर की बात का वजन समझ में आ रहा है। सवर्ण तो दलितों का हक देना ही नहीं चाहते। इसलिए आरक्षण जरूरी है। लेकिन यह स्थाई हल नहीं है।

दूसरा उदाहरण 1947 का है। एक ईसाई दलित विद्यार्थी दलित छात्रावास में फीस माफी चाहता था। हरिजन सेवक संघ में सवाल उठा कि फीस माफ होनी चाहिए या नहीं। बापू ने साफ कहा कि धर्म परिवर्तन के बाद यह फायदा नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि दलित के दायरे से बाहर आने के लिए ही तो धर्म बदला। इसलिए दोहरा फायदा गलत है।

बापू मानते थे कि दलितों को हमेशा दलित बनाए रखना ठीक नहीं है। तुषार गांधी बताते हैं, ‘बापू का दर्शन था कि दलितों को आर्थिक बराबरी पर लाना सिर्फ सरकारों के बूते की बात नहीं है। न ही सबको नौकरियां देना संभव है। इसलिए गांवों में ही रोजगार, स्कूल व अस्पताल दें। स्थानीय शिल्प और कारीगरी को बेहतर दाम और बाजार मुहैया कराएं। छोटे रोजगार के लिए आसान कर्ज दें। इससे स्थाई अवसर मुमकिन होंगे।’



विदेशी निवेश
विदेशी मदद भी गुलामी है खुद को मजबूत बनाओ
सरकार मल्टीनेशनल कंपनियों को रिटेल मार्केट में 51 फीसदी विदेशी निवेश की तैयारी में है। ऐसा हुआ तो भारत के छोटे कारोबारियों के धंधे चौपट होने की कगार पर हैं। देश के कई कारोबारी संगठन इसके विरोध में हैं। मामला विदेशी निवेश का है और बापू तो हर विदेशी चीज के खुलकर खिलाफ ही थे। उनका एक ही दृढ़ विचार था-आत्मनिर्भरता। वे हर तरह की निर्भरता को गुलामी ही मानते थे।

मेनचेस्टर में बने कपड़ों की होली जलाने वाले बापू तो कभी यह बर्दाश्त कर ही नहीं सकते थे। जब उन्होंने विदेशी कपड़ों का विरोध किया तो चरखे की तलाश देश भर में की। लेकिन मनचाहा चरखा कहीं मिला नहीं। 1917 में भड़ौच की शिक्षा परिषद में उनकी मुलाकात एक उत्साही कार्यकर्ता गंगाबहन से हुई। उन्होंने गंगाबहन को चरखे की खोज में लगाया, जिसे बीजापुर में बड़े और भारीभरकम चरखे मिले। बापू ने साबरमती आश्रम में बीजापुर के चरखे जुटाए, उड़ीसा से कारीगर बुलाए।

पांच साल की तकनीकी कोशिशों से पोर्टेबल चरखे तैयार करा दिए। वे खुद चरखे पर काती हुई खादी ही धारण करते। कहते थे, जब तक हम अपने हाथ से कातेंगे नहीं, हमारी गुलामी बनी रहेगी। कांग्रेस के हर अधिवेशन में बापू ने ग्रामोद्योग पर आधारित प्रदर्शनियां लगानी शुरू कीं। उनका संदेश था-आत्मनिर्भर बनो, गुलाम नहीं।

विदेशी मदद भी गुलामी ही है। गांधी दर्शन के मुताबिक ही कुछ कारोबारी संगठन विरोध के साथ विकल्प भी खड़े कर रहे हैं। जैसे-छोटे कारोबारियों को सक्षम, उनकी सेवाओं को आधुनिक व आकर्षक बनाने की कोशिश। उपभोक्ताओं से स मानजनक व्यवहार के लिए प्रशिक्षण, प्रोडक्ट्स की रेंज की जानकारी देना।

1 टिप्पणी:

  1. गांधी दर्शन पूरी तरह से व्यवहारिकता पर टिका है। भले ही उनके कई दर्शन अब तक गले नहीं उतर पाएं हैं पर ज्यादातर के उत्तर मुझे इसी में मिले हैं।

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