दो साल की मेहनत:
नोह ने बताया कि कालीन बनाने में दो साल लगे हैं। यह बिजली के करंट में आने वाले छोटी अनचाही तरंगों के बदलाव से चलता है। इन बदलावों को रिप्पल पॉवर कहा जाता है। इस पर सेंसर लगाए गए हैं, जो करंट के बदलावों को पहचानते हैं। फिलहाल यह जमीन से ज्यादा ऊपर नहीं उड़ पाता।
भारतीय लेख से लिया आइडिया:
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के लक्ष्मीनारायण महादेवन ने 2007 में एक लेख लिखा था। यह लेख ‘फिजिकल रिव्यू लेटर्स’ में प्रकाशित हुआ था। इसी से प्रेरणा लेकर नोह ने यह कालीन बनाने की ठानी।
सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करेंगे:
इस कालीन पर इंसानों का बैठ पाना फिलहाल मुश्किल है। इसके लिए कालीन में दोनों ओर 50 मीटर के पंख फैलाव की जरूरत होगी। हालांकि इसका प्रयोग धूल-भरी लेकिन खुली जगह पर किया जा सकता है। धूल रिप्पल पॉवर बढ़ाने में मदद करेगी।
बिना रोक-टोक और खुला वातावरण होने से पंख भी लगाए जा सकेंगे। वैज्ञानिकों के मुताबिक इसका प्रयोग मंगल ग्रह पर अध्ययनों के लिए हो सकता है। वे अब इसे सौर ऊर्जा से उड़ाने की तैयारी कर रहे हैं।
ऐसे भरता है उड़ान
जमीन पर इलेक्ट्रॉनिक यंत्र रखा गया है। इसमें करंट आता है। कालीन का प्लास्टिक बिजली का परिचालक है। यंत्र के करंट में आने वाली तरंगों के बदलाव से कालीन उड़ान भरता है। नोह की टीम के प्रमुख शोधकर्ता प्रो. जेम्स स्टर्म ने कहा कि तकनीकी सुधार से यह एक मीटर प्रति सेकंड की गति से उड़ सकेगा।
अच्छी पोस्ट .
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