दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के हाड़ौती अंचल में पुरानी कहावत है-रावणजी को तीसरो, कोटा बारें नीसरो, यानी 100 साल पहले यह तीन दिन का उत्सव था। इतिहासकार फिरोज अहमद बताते हैं कि यहां दशहरे की परंपरा महाराज उम्मेदसिंह (द्वितीय) के शासनकाल में 1893 में शुरू हुई थी।
कोटा के शासक तत्कालीन महाराज सोने-चांदी के रथ पर गढ़ पैलेस से राजसी ठाठ के साथ रावण का वध करने जाते थे। दशहरा मैदान में रावण, मंदोदरी, कुंभकर्ण, मेघनाद के पक्के ढांचे बने होते थे। उन पर केवल मुकुट लगा दिए जाते थे। रावण के पेट में मटकी रखी जाती थी, जिसका महाराज तीर से निशाना लगाते थे। फिर रावण का सिर गिराया जाता था। अब आतिशबाजी के साथ रावण दहन होता है। आज भी पूर्व राज परिवार परंपरा निभा रहे हैं।
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