अन्ना को यह साबित करने के लिए कि उनकी बात में दम है, दो बार अनशन करना पड़ा, सरकार को 13 पत्र लिखने पड़े, जनता को सड़क पर उतरना पड़ा और चौबीसों घंटे मीडिया का सहयोग लेना पड़ा।
देश भर में अन्ना के समर्थन में चली लहर और सड़क पर उतरे जनसैलाब ने सरकार को हार का घूंट पीकर जनता के आगे झुकने के लिए (हालांकि अभी यह देखना बाकी है कि अंतत: किस हद तक सरकार झुकती है) मजबूर कर दिया है। लेकिन बुनियादी सवाल अभी भी वही है। क्या देश में हर बदलाव के लिए आज एक अन्ना की जरूरत है? क्या जनता की सरकार उसकी बात तभी सुनेगी जब जनता सड़कों पर उतर कर जान देने पर आमादा हो जाए? और क्या इतने पर भी उसकी बात मान ली जाएगी, इस बात की गारंटी है?
इन सवालों के बीच क्या जन लोकपाल से और आगे जाने की जरूरत नहीं खड़ी होती है? क्या वक्त आ गया है कि अब जनता अपनी बात नहीं सुनने वाले सांसदों को वापस बुलाने का अधिकार मांगे?
यदि यह अधिकार मिल गया तो अपनीबात सुनाने के लिए लोगों को जनप्रतिनिधियों का ऐसे घेराव नहीं करना पड़ेगा जैसे कि अन्ना आंदोलन के दौरान हमने देखा। जनता के पास विश्वास खो चुके जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार (राइट टू रिकॉल) होगा।
हालांकि भारत के कई राज्यों में पंचायत और नगरीय प्रशासन व्यवस्था में लोगों को यह अधिकार मिल गया है। तो क्या संसदीय शासन व्यवस्था में इसे लागू नहीं करना चाहिए?
यह व्यवस्था ग्रीस के प्रजातंत्र के समय से चली आ रही है और आज के दौर में कई देशों ने इसे अमल में ला रखा है। मौजूदा दौर में इस व्यवस्था की शुरुआत स्विट्जरलैंड में हुई लेकिन अमेरिका ने भी कई राज्यों में इसे लागू कर रखा है। लॉस एंजेलिस, मिशिगन और ओरेगन जैसे राज्यों मेंतो जनता प्रतिनिधियों को वापस भी बुला चुकी है। ब्रिटेन, कनाडा, युगांडा और वेनेजुएला में भी जनता के पास अलग-अलग रूप में यह अधिकार है।
भारत में स्थिति-
भारत में जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार के लिए सबसे पहले जय प्रकाश नारायण ने 1974 में इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ चलाए गए संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान आवाज बुलंद की थी। इसके बाद 1984 में जनता दल की सरकार और फिर 1989 में नेशनल फ्रंट की सरकार के दौरान भी इस अधिकार की मांग उठी। लेकिन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था हमेशा से ही इस अधिकार को लाने से खुद को बचाती रही है।
भारत के कई राज्यों में इस व्यवस्था की परख के लिए प्रयोग हो चुका है। बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने शहरी क्षेत्र के वोटरों को नगरीय प्रशासन के प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार दिया है। म्यूनिसिपल कार्पोरेशन, नगर परिषद या नगर पंचायत के दो तिहाई वोटर यदि अपने जनप्रतिनिधियों के खिलाफ हस्ताक्षर कर शहरी विकास विभाग के समक्ष याचिका प्रस्तुत करें तो आरोप सही पाए जाने पर प्रतिनिधियों को वापस बुलाया जा सकता है।
2007 में छत्तीसगढ़ के के राजपुर, गुंडेरदेही और नवागढ़ में चुने जाने के 6 महीने बाद ही जनप्रतिनिधियों को इसलिए बाहर कर दिया गया था क्योंकि वो जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे थे।
मध्य प्रदेश पंचायती राज कानून 1993 भी चुने हुए जन प्रतिनिधियों को चुनाव के ढाई साल बाद वापस बुलाने का अधिकार जनता को देता है।
तो क्या जन लोकपाल के बाद अब 'राइट टू रिकॉल' के लिए लड़ाई लड़नी होगी?
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