केरल के श्रीपद्मनाभ मंदिर से अकूत संपदा का प्राप्त होना दुनियाभर के लिए विस्मय का कारण बन गया है। इस संपदा का मूल्य एक लाख करोड़ रुपए आंका गया है, जबकि मंदिर का एक तहखाना खोला जाना अब भी बाकी है। इसके साथ ही श्रीपद्मनाभ मंदिर संपदा के मामले में तिरुपति सहित दुनिया के किसी भी अन्य धर्मस्थल से आगे निकल गया है। यदि कलात्मक महत्व के आधार पर मंदिर की संपदा का आकलन किया जाए तो यह आंकड़ा और बढ़ सकता है। कुछ पश्चिमियों के दिमाग में इस संपदा ने वैसा ही जादू जगाया है, जैसा कभी गोलकुंडा के खजाने ने जगाया था। इसी खजाने की खोज में क्रिस्टोफर कोलंबस भारत को ढूंढ़ने निकला था, लेकिन भूलवश अमेरिका पहुंच गया था। कुछ अन्य लोगों के लिए यह संपदा एक गुत्थी बन गई है। श्रीपद्मनाभ मंदिर की संपत्ति का आखिर क्या अर्थ निकाला जाए? यह संपत्ति किसकी है? यह मंदिर तक कैसे पहुंची? और अब इसका क्या किया जाना चाहिए?
मंदिर से मिली संपत्ति में लगभग दो हजार वर्ष पुराने रोमन सिक्के, १४वीं और १५वीं सदी के वेनिस के सोने के डच्यूकेट्स, १६वीं सदी के पुर्तगाली सिक्के, १७वीं सदी के डच ईस्ट इंडिया कंपनी के सिक्के और १९वीं सदी के प्रारंभिक दौर के नेपोलियन के सोने के सिक्के भी शामिल हैं। आखिर दुनियाभर की मुद्राएं एक मंदिर के तहखाने तक कैसे पहुंच गईं? हम भूल जाते हैं कि एक समय भारत समुद्री व्यापार का महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। ५ हजार मील लंबी तटरेखा वाले इस महादेश के महत्वाकांक्षी व्यापारी सात समंदर पार से कारोबार करने को हमेशा तत्पर रहते थे। पश्चिम के लोग भारतीय मसालों, सूती कपड़ों और आभूषणों पर आसक्त थे, लेकिन उनके उत्पादों में भारतीयों की इतनी रुचि नहीं थी। लिहाजा, पश्चिमी व्यापारियों को भारतीय मसालों और कपड़ों के लिए सोने और चांदी की मुद्राओं में भुगतान करना पड़ता था। रोमन सीनेटर शिकायत भरे लहजे में कहते थे कि उनकी स्त्रियां भारतीय मसालों और आभूषणों का जरूरत से ज्यादा उपभोग कर रही हैं, नतीजन रोमन साम्राज्य का खजाना खाली होता जा रहा है। वर्ष ७७ में प्लिनी द एल्डर ने भारत को ‘संसार के स्वर्ण भंडार का रसातल’ बताया था। १६वीं सदी में पुर्तगालियों ने नाराज होकर कहा था कि उनके द्वारा दक्षिण अमेरिका से हासिल की गई चांदी हिंदुस्तान में गर्क हो रही है। १७वीं-१८वीं सदी में ब्रिटिश संसद ने इसी मसले पर खासी हायतौबा मचाई थी और उसने ईस्ट इंडिया कंपनी को हुक्म भी दिया था कि वह अंग्रेजी उत्पाद खरीदने वाले भारतीयों से खूब ब्याज वसूले। १९वीं सदी के प्रारंभ में इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति के बाद जब भारतीय हैंडलूम चलन से बाहर हो गए, तब जाकर हालात बदले और लैंकशायर के कारखानों का सस्ता और टिकाऊ सूत भारतीयों के मन भाया।
दक्षिण भारत के तटवर्ती नगरों में सोने का भंडार व्यापारिक कारणों से पहुंचा था। लेकिन मूल सवाल बरकरार है : यह संपदा मंदिरों तक कैसे पहुंची? छठी सदी में भक्ति आंदोलन के प्रभाव में दक्षिण भारत के मंदिर धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन के जीवंत केंद्रों के रूप में उभरे थे। सम्राटों, जमींदारों और व्यापारियों ने पुण्य कमाने और सामाजिक वैधता प्राप्त करने के लिए मंदिरों को दिल खोलकर दान दिया। त्रावनकोर के मितव्ययी वर्मन वंशीय राजा ने पद्मनाथ मंदिर को अपनी सारी संपत्ति दे दी थी। श्रीपद्मनाभ भगवान विष्णु का ही एक अन्य नाम है। हालांकि यह मंदिर हजारों साल पहले निर्मित हुआ था, लेकिन १७७१ में त्रावनकोर के राजा मरतड वर्मा द्वारा डचों को कुलाचाई की लड़ाई में परास्त करने के बाद इसका महत्व बढ़ा। राजा ने अपना साम्राज्य भगवान श्रीपद्मनाभ को समर्पित कर दिया था। उसके अनुयायियों ने भी इस परंपरा को कायम रखा। आज भी राजा के वंशज मंदिर के ट्रस्ट का कामकाज संभालते हैं। वे स्वयं को ‘दास’ कहते हैं। इस वर्ष जनवरी में केरल हाईकोर्ट ने मंदिर पर शाही परिवार के दावे को खत्म करते हुए उसके प्रबंधन का जिम्मा राज्य सरकार को सौंपा था। लेकिन सर्वोच्च अदालत ने हाईकोर्ट के फैसले पर स्थगन देते हुए अंतरिम आदेश पारित किया और विशेष जांच दल को मंदिर की संपत्ति का आकलन करने को कहा। इसी तरह जुलाई में संपदा का सच सामने आया।
इस संपदा पर किसका स्वामित्व है? यह तथ्य वाकई अद्भुत है कि सदियों तक मंदिर की संपदा की रक्षा करने वाले शाही परिवार ने उस पर दावा जताने से इनकार कर दिया। यहां केरल के मुख्यमंत्री ओम्मान चांडी को भी श्रेय दिया जाना चाहिए, जिन्होंने जोर देकर कहा कि मंदिर की संपत्ति राज्य की मिल्कियत नहीं है। अलबत्ता वामपंथियों ने जरूर यह कहा कि संपत्ति का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाना चाहिए। वे गलत हैं। यह संपदा मंदिर के देवता को अर्पित की गई थी और इस पर राज्य का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन यकीनन इस संपदा को पुन: तहखानों में नहीं रखा जा सकता।
दानदाताओं और ट्रस्टियों को इस संपदा के बेहतर उपयोग पर ऐतराज नहीं होना चाहिए। इसका विवेकपूर्वक निवेश किया जाना चाहिए और निवेश से प्राप्त आय का निवेश भी विभिन्न रचनात्मक उद्यमों में होना चाहिए। एक विकल्प यह है कि तिरुपति मंदिर की तर्ज पर मंदिर की संपदा का उपयोग जनकल्याण के विभिन्न कार्यो में किया जाए। सर्वोच्च अदालत ने सुझाया है कि संपदा के संरक्षण के लिए एक भव्य और विश्वस्तरीय संग्रहालय का निर्माण किया जाए, जो तिरुवनंतपुरम को विश्व के पर्यटन नक्शे पर ला दे। इससे जहां शहर की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी, वहीं दुनियाभर के लोग भी भगवान के आभूषणों के दर्शन कर सकेंगे।
यह उचित ही है कि इस संपदा की खोज भारत में आर्थिक सुधारों की २क्वीं वर्षगांठ पर हुई। स्वतंत्रता के बाद हमारे नेता भारत की महान व्यावसायिक विरासत को भूल गए थे और उन्होंने विदेशी पूंजी के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए थे। नतीजा यह रहा कि हम दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनियाभर की अर्थव्यवस्था में आए जबर्दस्त उछाल का फायदा उठाने से चूक गए। लेकिन १९९१ के बाद हम पुन: अपनी ऐतिहासिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। साभार
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