सरकार ने लोकपाल आंदोलन की धार कुंद करने के लिए 'बांटो और राज करो' की नीति अपनाई थी। सरकार की बाबा रामदेव से हुई डील भ्रष्टाचार से लड़ रहे लोगों को बांटने की सरकार की एक और कोशिश थी। लेकिन सौभाग्य से यह कोशिश नाकाम रही। कुछ पत्रकार, ब्लॉगर, एनजीओ जो आंदोलन का हिस्सा नहीं रहे हैं और छूटा हुआ महसूस करते हैं, वे यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच फूट पड़ गई है।
रामदेव से कहा गया कि वह अन्ना हजारे के साथ मंच साझा न करें। आप यह मान सकते हैं कि 4 जून को स्वामी रामदेव और उनके समर्थकों पर रामलीला मैदान में इसलिए कार्रवाई की गई क्योंकि 5 जून को हजारे रामलीला मैदान जाकर स्वामी रामदेव के साथ मंच पर बैठने वाले थे।
इसके बाद इटली के कूटनीतिकार मैकियावली के डिवीजन और डाउट (बंटवारा और शक पैदा करो) सिद्धांत पर अमल करते हुए अन्ना हजारे और उनकी टीम को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के पिट्ठू के तौर पर प्रचारित किया गया। ऐसा इसलिए किया गया ताकि मुस्लिमों, ईसाइयों और दूसरे अल्पसंख्यकों के बीच मौजूद असुरक्षा की भावना से खेलते हुए धार्मिक आधार पर विभाजन किया जा सके। इस पर अल्पसंख्यकों और चिंतित नागरिकों ने सवाल खड़े किए थे।
गुजरात में ग्राम स्तर पर प्रशासन को लेकर अन्ना हजारे की टिप्पणी को बढ़ा चढ़ाकर सांप्रदायिक राजनीति के समर्थन के तौर पर पेश किया गया और यही नहीं, अन्ना के बयान को गुजरात में दंगों के समर्थन में भी दिखाने की कोशिश की गई। सौभाग्य से टीम अन्ना ने सधे जवाबों से कई तरह के भ्रम तोड़े।
दलित मीडिया और दलित समाज में यह भ्रम फैलाने की कोशिश की गई कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन संविधान के खिलाफ है। साथ ही यह भी साबित करने की कोशिश हुई कि हजारे बाबा साहब अंबेडकर के खिलाफ हैं। दलित कार्यकर्ताओं की मुंबई में हुए एक बैठक के दौरान अन्ना बनाम बाबा अंबेडकर से ही जुड़े सवाले पूछे गए। लेकिन एक बार पूरी बात समझ लेने के बाद दलित नेताओं ने जन लोकपाल बिल का पूरा समर्थन किया।
फूट डालने के लिए टीम अन्ना और राष्ट्रीय सलाहकार समिति (एनएसी) को आमने-सामने खड़ा किया गया। इससे ज़्यादा अहम बात यह थी कि लोगों के दिमाग में संदेह पैदा करने के लिए एक सुनियोजित अभियान चलाया गया। इसका पहला कदम था लोकपाल बिल की मांग कर रहे लोगों को कठघरे में खड़ा करना। इसके लिए झूठ और आधे सच बोले गए।
अन्ना हजारे की छवि खराब करने के लिए किए गए शुरुआती हमले बेकार साबित हुए। इसके बाद शांति भूषण और प्रशांत भूषण पर सवाल खड़े किए गए। लेकिन एक खराब छवि वाले राजनेता को इस काम के लिए लगाया गया जो आखिर में बड़ी गलती साबित हुई।
शुरुआती शक-ओ-शुबह दूर होने के बाद लोगों को यह खेल समझ में आने लगा, इसके चलते ताकतवर और धूर्त पीछे हटने पर मजबूर हो गए।
दूसरा कदम, प्रक्रिया (जन लोकपाल विधेयक को तैयार करने और पास कराने का तरीका) पर सवाल खड़े किए गए। इसे अलोकतांत्रिक, असंसदीय और लोगों का प्रतिनिधित्व न करने वाला बताया गया। मुद्दों पर चर्चा नहीं हुई बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा, सरकार को अपने हाथ में लेने जैसी बातें करके लोगों को डराया गया।
तीसरा कदम, खास मुद्दों पर चर्चा के बजाय सुपरकॉप, फ्रैंकेंस्टाइन मॉन्स्टर, प्रधानमंत्री और न्यायपालिका से ऊपर होने, सांसदों के अधिकार छीनने और अव्यवहारिक होने जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके लोगों के मन में संदेह पैदा करने की कोशिश की गई।
अगर कायदे से देखा जाए तो इनमें से कोई भी आरोप सही नहीं साबित होगा। लेकिन ऐसी कोशिशों के पीछे यही यकीन था, ‘आओ कुछ कीचड़ उछालें, कुछ तो सामने वाले पर लगेगा ही।’
चौथा और सबसे ज़्यादा छलावा भरी कोशिश ऐसे विधेयक को तैयार करके की गई जिससे संदेह पैदा हो। आप यह उम्मीद कर सकते हैं कि कैबिनेट का ड्राफ्ट बिल बहुत सधे हुए शब्दों में तैयार किया गया होगा ताकि यह लगे की सरकार बहुत व्यवहारिक है और सरकारी बिल जन लोकपाल बिल जैसा ही लगे।
नेशनल कैंपेन फॉर पीपल्स राइट टू इन्फर्मेशन (एनसीपीआरआई) ने एक मजबूत लोकपाल बिल तैयार किया। लेकिन यह बिल लोकपाल के अधिकारों और काम को पांच अलग-अलग विधेयकों में बांटता है और किसी एक एजेंसी को पूरी शक्ति नहीं देता है। सरकार इस विधेयक के बड़े हिस्से को स्वीकार कर लेगी। यह जन लोकपाल बिल को खत्म करने का समझदारी भरा कदम है।
सरकार की इस नकारात्मक मुहिम में दो और तरह के हथियारों का इस्तेमाल किया गया है। ये हैं डिस्कनेक्ट (कटा हुआ या अलग-थलग) और डिनायल (इनकार करना) ।
मुंबई में किए गए एक जनमत संग्रह में यह बात सामने आई कि 95 फीसदी लोगों ने जन लोकपाल बिल को मंजूरी दी है। मीडिया में हुए ओपीनियन पोल में यह देखा गया कि सरकार के खिलाफ काफी गुस्सा और अन्ना हजारे के लिए बहुत समर्थन है। लेकिन लगता है कि सरकार जनभावना को अनदेखा कर रही है और लोगों से पूरी तरह कटी हुई है।
इन तरीकों से लड़ने का एक ही तरीका है और वह है सच। सूरज की रोशनी सबसे अच्छा कीटनाशक होती है। यह धीमी प्रक्रिया जरूर है, लेकिन यह निश्चित जरूर है।
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