चाँद को में
जब जब भी
देखता हूँ
ना जाने क्यूँ
चाँद मुझसे
शरमा जाता है ..
सूरज को में
जब जब भी
घूरता हूँ
ना जाने क्यूँ
सूरज मुझ से
घबरा जाता है
पर्वत को मेने
जब भी देखा है
ना जाने क्यूँ
पर्वत पिघल जाता है
असमान को देखता हूँ
जब भी में
आसमान है
के अपनी जगह से चला जाता है
ऐसा क्या है मुझ में
ऐसा क्या है मेरी नजरों में
शायद यह सब इसलियें होता है
के हमारी नजरों में
हरदम
तुम और तुम ही रहते हो
इसीलियें तो चाँद.सूरज.पहाड़ आसमान
तुम्हारे तेज के आगे
ठहर नहीं पाते हैं ................अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
tum hi tum rahte ho... bhut hi sunder rachna...
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