आपका-अख्तर खान

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26 नवंबर 2010

रोज़ सुबह पाठ पढ़ता हूँ भूल जाता हूँ

में
एक इंसान हूँ
इसलियें
रोज़
पाठ पढ़ता हूँ
रोज़
भूल जाता हूँ
सुबह सवेरे
उगते सूरज को देखकर
सोचता हूँ
इसकी तरह रोज़ सुबह
वक्त पर चमकना हे
फिर विशाल ऊँचे आसमां को देखता हूँ
तो सोचता हूँ
असमान की तरह
विशाल और चादर बनूंगा
फिर सोचता हूँ
हवाएं जो निरंतर चल रही हें
इस हवा की तरह
में निरंतर चलूँगा
फिर होती हे
दोपहर
फिर होती हे
अँधेरी शाम
निकलता हे चाँद
तो सोचता हूँ
में चाँद की तरह
लोगों को चांदनी दूंगा
फिर तारों को देखता हूँ
सोचता हूँ
तारों की तरह
उंचाइयां हांसिल करूंगा
फिर लेता हूँ बिस्तर पर
बस नींद के आगोश में
सब कुछ भूल जाता हूँ
सुबह होती हे
फिर शाम होती हे
बस यही सोचता हूँ और सोता हूँ
फिर उठता हूँ और यही सोच दोहराता हूँ
शायद लार्वाह शेख चिल्ली की
बस यही जिंदगी हे
इसलियें सोचता हूँ
मुझ सा सोचने वाला और कोई न बने
कोई बने तो जो सोचे वोह करें
ताकि फिर
मेरा भारत
महान बने ।
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

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