जमाने में
ऐ नफरत
बांटने
वालों
जरा खुद को बदलो
ईमान से
जमाने को फूल भी
बाँट कर तो देखो
बहुत बाँट लिए
लोगों को कांटे तुमने
जरा नजर तो उठाओं
चारों तरफ
शोर हे
धर्म का
लेकिन आज
जरा
कहीं
त्रिशूल बाँट कर तो देखो ,
ब्याज बहुत
खा लिया
महाजनों
गरीबों से तुमने
जरा इनको
अब इनका
मूल बाँट कर भी तो देखो
मत तलाशो
इधर उधर
अपने दिलों में
जरा झाँक कर
खुदा का नूर भी तो देखो
इतराओ मत
कल तो तुम्हें भी इसी में रमना हे
अपने कदमों के नीचे
झांक कर
जरा जूतों की धूल को तो देखो।
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे मज़हब के लोग देख कर कहें कि अगर उम्मत ऐसी होती है,तो नबी कैसे होंगे? गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.
26 सितंबर 2010
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कविता वाकई बहुत अच्छी है पर उजाले दामन पर कुछ खटक रहा है.
जवाब देंहटाएंफूल और भूल
कृपया इसे सही कर लीजियेगा.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
प्रति रविवार एक पोस्ट का विश्लेषण, जरूर देखें
बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरती के साथ शब्दों को पिरोया है इन पंक्तिया में आपने ........
जवाब देंहटाएंपढ़िए और मुस्कुराइए :-
आप ही बताये कैसे पर की जाये नदी ?
बहुत अच्छा लिखा है, अख्तर भाई।
जवाब देंहटाएंबस थोड़ा सा फ़ुल को फ़ूल, कहा को कमा और धुल को धूल संपादित कर दीजिये।
बहुत अच्छे विचार हैं आपके। टोकाटाकी का बुरा लगे तो कह दीजियेगा, नहीं करेंगे।
वाह अख्तर भाई, बहुत खूब!
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