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26 सितंबर 2010

कभी फूल भी तो बाँट कर देखो

जमाने में
ऐ नफरत
बांटने
वालों
जरा खुद को बदलो
ईमान से
जमाने को फूल भी
बाँट कर तो देखो
बहुत बाँट लिए
लोगों को कांटे तुमने
जरा नजर तो उठाओं
चारों तरफ
शोर हे
धर्म का
लेकिन आज
जरा
कहीं
त्रिशूल बाँट कर तो देखो ,
ब्याज बहुत
खा लिया
महाजनों
गरीबों से तुमने
जरा इनको
अब इनका
मूल बाँट कर भी तो देखो
मत तलाशो
इधर उधर
अपने दिलों में
जरा झाँक कर
खुदा का नूर भी तो देखो
इतराओ मत
कल तो तुम्हें भी इसी में रमना हे
अपने कदमों के नीचे
झांक कर
जरा जूतों की धूल को तो देखो।
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

5 टिप्‍पणियां:

  1. कविता वाकई बहुत अच्छी है पर उजाले दामन पर कुछ खटक रहा है.
    फूल और भूल
    कृपया इसे सही कर लीजियेगा.
    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

    प्रति रविवार एक पोस्ट का विश्लेषण, जरूर देखें

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत खूबसूरती के साथ शब्दों को पिरोया है इन पंक्तिया में आपने ........
    पढ़िए और मुस्कुराइए :-
    आप ही बताये कैसे पर की जाये नदी ?

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छा लिखा है, अख्तर भाई।
    बस थोड़ा सा फ़ुल को फ़ूल, कहा को कमा और धुल को धूल संपादित कर दीजिये।
    बहुत अच्छे विचार हैं आपके। टोकाटाकी का बुरा लगे तो कह दीजियेगा, नहीं करेंगे।

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह अख्तर भाई, बहुत खूब!

    जवाब देंहटाएं

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